१६३] सुधाकर-चन्द्रिका। ३५५ . अध्या. 1 चाहता है'। राजा ने कहा 'निःसंशय कहिए'। विष्णु-ब्राह्मण ने कहा, कि 'आप का आधा दक्षिणाङ्ग शिर से पैर तक चाहता हूँ। राजा ने आरे से श्राधी देह को देने के लिये चिरवाने लगा। श्रारा शिर को चौरते चौरते जब मस्तक के पास पहुंचा तब राजा को दहनौ आँख से आँस का एक बूंद टपक पडा, दूम पर ब्राह्मण ने कहा, कि श्राप दान के समय दुःखित हो गये सो अब मैं दूस कलुषित दान को न लूँगा'। इस पर राजा ने कहा, कि 'महाराज मै दुःखित दूस चिन्ता से हुआ हूँ, कि श्राधी देह तो श्राप के काम आई पर मेरी बचौ श्राधी देह व्यर्थ न जाय यह भी किसी के काम में आ जाय'। इस बात पर भगवान् राजा से बहुत प्रसन्न हुए और अभय प्रदान कर, विष्णुलोक को चले गये। विष्णु पुराण ४ अंश ० । अध्या० ३ । श्लो० १५ में भी इस राजा का नाम पाया है। दूसौ को ले कर, और देवी भागवत, स्कन्ध ७, १२-२७ की कथा को मिला कर कवि लोगों ने अपनी कल्पना के साथ, अनेक मनोरञ्जन कथा बनाई है। मेरे मित्र भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र जी ने भी हिन्दी में इस विषय का 'सत्य-हरिश्चन्द्र' नाटक ऐसा करुणा-रस पूरित बनाया है, कि पढने में पद पद पर, उन को विपद से रुलाई पाती है। भागवत के ८ स्कन्ध, अध्याय ७ 4 में भी संक्षेप से कुछ राजा हरिश्चन्द्र की कथा है। ये त्रेतायुग में सूर्यवंश में २८ वाँ राजा हुए हैं। वेनु, यह परम्परा से भ्रष्ट पाठ है, क्योंकि वेनु अर्थात् वेन यह तो भारतवर्ष में महा अधम राजा हुअा है। दूस के राज्य में धर्माधर्म का कुछ भी विचार नहीं था; लोग पशुवत् वृत्ति उठा ली थी। इसी पर मनु-स्मृति में लिखा है, कि नौदाहिकेषु मन्त्रेषु नियोगः कीर्त्यते क्वचित् । न विवाहविधायुक्तं विधवावेदनं पुनः ॥ अयं दिजैर्हि विद्वद्भिः पशुधर्मो विगर्हितः । मनुष्याणामपि प्रोतो वेने राज्यं प्रशासति ॥ स महीमखिला भुञ्जन् राजर्षिप्रवरः पुरा । वर्णानां सङ्करं चक्रे कामोपहतचेतनः ।। ततः प्रभृति यो मोहात् प्रमीतपतिकां स्त्रियम् । नियोजयत्यपत्यार्थं तं विगर्हन्ति साधवः ।। (अध्याय १, श्लो० ६५-६८) दूस लिये हम ने 'बदून' वैन्य का अपभ्रंश, पाठ रकबा है। AU
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