३६४ पदुमावति । १६ । सिंघल-दीप-भाउ-खंड । [१६६ । खंड खण्ड - 1 - बझता है बना)=खसना विधि में मध्यम-पुरुष का बहु-वचन । बारू-बार = द्वार = डेवढी। ऊँचदू (महा-धनी)= महाजन । कीजि = कौजिये = करिये = कर (करोति ) का विधि में मध्यम-पुरुष का बहु-वचन । बवहारू = व्यवहार = लेन देन । ऊँचदू = उच्च स्थान = कोठा, अटारी, वा धरहरा। चढदू = चढे = चढदू (उच्छर्दति) का संभावना में प्रथम- पुरुष का एक-वचन। ऊँच = ऊँचा दूर। भाग। सूझा सूझदू (शुद्ध्यते) सूझता है। ऊँचद् = ऊँचा (बुद्धि में) = पण्डित बहु-श्रुत । पास = पार्श्व = निकट । ऊँच = ऊँचौ = सब से बढ कर। मति = बुद्धि = अकिल। बूझा = बुझइ (बुध्यते ) - = जानता है। ऊँचद् = बडे (राजा, बाबू, सिद्ध, महन्त इत्यादि)। संग सङ्ग= साथ। सँगति = मङ्गति = सङ्गमन = चलना। निति = नित्य =नित। ऊँचद् लादू = ऊँचे को लगा कर = ऊँचे के लिये बड़े लोग के लिये। दौजित्र दीजिये (दत्ते) का विधि में मध्यम-पुरुष का बहु-वचन ॥ ऊँच = बडा = प्रतिष्ठित । हो = होता है। चाउ = चाह = इच्छा। चढत = चढने में। खसि (खचति, प्राकृत खस से पतन = गिर। पर = परे= पडे पर (पतति) का संभावना में प्रथम-पुरुष का एक-वचन । छाँडि छाडिये छोडिये (कुडति) का विधि में मध्यम-पुरुष का बहु-वचन । काउ= क्वा पि= कभी॥ राजा ने (शुक से) कहा, कि यदि (पद्मावती का) दर्शन पाऊँ, (तो) पर्वत क्या आकाश को दौड़, अर्थात् तँ ने जो महादेव के मण्डप-पर्वत पर जाने को कहा, वह तो अत्यन्त सुगम है। मैं पद्मावती के लिये श्राकाश के ऊपर दौड सकता हूँ (मो हे शुक,) जिस पर्वत पर ( पद्मावती के) दर्शन की प्राप्ति है; (उस अनुपम पर्वत पर) मैं शिर से चढूँ, पैर का क्या कहना, अर्थात् पैर की क्या बात ; मैं उस पर्वत पर शिर के बल चढ सकता हूँ ॥ (क्योंकि उच्च वंश में जन्म लेने से ) मुझे भौ ऊँचा स्थान अच्छा लगता है। (ऊँच सउँ ठाऊँ = उच्च से जो स्थान हो, अर्थात् प्रतिष्ठित लोग से जो स्थान भूषित हो)। (मैं सच्चा प्रेमी हूँ; छिप लुक कर नहीं, किन्तु ) उच्च-स्वर से (अपने ) प्रियतम का नाम लेता हूँ (मो ऊँचे-ही पर से प्रियतम का नाम पुकारना उत्तम है) ॥ पुरुष को चाहिए, कि बडा साहस रकटे, (जैसे रावण ने साहस किया, कि शिर तक काट कर हवन कर दिया, तब लङ्का का राजा हुआ)। (और) दिन दिन उच्च पदवी पर पैर रखता जाय (राखद् का दोनों कर्मों में संबन्ध है), (जैसे विश्वामित्र, क्षत्रिय, ऋषि, राजर्षि होते होते ब्रह्मर्षि हो गय । . ॥
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