पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५०८

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४०२ पदुमावति । १८ । सुबा-भैट-खंड । [१८३ - १८४ है = अहम् सऊ=

- .. कहा = किमु हा = क्या । कहउँ = कहूँ (कथये)। हउँ मैं । श्रीहि -उस से। मेट = मेटदू = मिटाता है (मठि शोके, मण्ठते)। करउँ = करूँ (करवाणि )। बाहर = बहिः । भेंट (भट भृतौ वा, अभ्यटति से ) = मुलाकात ॥ (हौरा-मणि ने कहा कि) हे रानी (पद्मावती) तूं चन्द्रमा और सोने की कला है और वह (रत्न-सेन) निर्मल सूर्य और नगीना है। (जो तुम कहती हो कि कौन बोच में पडे और दूस बात को पिता से कहे सो) विरह-बिजुरौ को आग के बीच क्या कोई पडे ; ( पडना दूर रहा) जो कोई (उस ) आग को छूबे वही जल जाय । (साधारण) अाग को पानी से बुझा कर उस में पडे सोने को ) धो कर (श्रादमी) निकाल लेता है, (पर) वह (बिजुरौ को) भाग (पानी से) नहीं बुझती (किन्तु ) और अधिक बढती है। विरह की आग से सूर्य नहीं ठहरता है ; रात दिन घूमा करता है और (जलन से ) दहका करता है। (कवि को उत्प्रेक्षा है कि भगवान् को आँख से जिस दिन सूर्य बिछुडा, उसी दिन से जुदाई की आग से व्याकुल हो दिन रात तपा हुआ घूमा करता है, ठहरता नहौँ । पुराणों में कथा है, कि सूर्य को उत्पत्ति भगवान् को आँख से है। तुलसी-दास ने भी विनय-पत्रिका में लिखा है कि 'बिछुरे ससि रबि मन नयनन्ह तें', ८८ वाँ पद देखो)। क्षण में स्वर्ग और क्षण में पाताल जाता है; तिसो अपार (विरह की) श्राग से स्थिर नहीं रहता। धन्य वह जीव (रत्न-सेन ) है जो ऐसे (भाग को) दाह को सहता है; अकेला जला करता है (पर) दूसरे से नहीं कहता। सुलग सुलग कर भौतर काला हो जाता है (पर) प्रगट हो कर दुःख का नाम (तक) नहीं कहता है ॥ मैं उस से (ब्रह्मा से ) क्या कह जिस ने दुःख को तो किया अर्थात् दिया (पर उस को) मिटाता नहीं ; (मो हे पद्मावति) जिस दिन वह (रत्न-सेन ) भेंट करेगा उसो (तिमी) दिन इस श्राग को बाहर करूँ अर्थात् करूँगा (घबडायो न अभी जहाँ तक बने दूस आग को दबा कर हृदय में रकबो, भभकने न पावे ) ॥ १८३ ॥ - - चउपाई। सुनि कइ धनि जारी अस काया। तन भउ साँच हिअभिउ माया ॥ देखउँ जाइ जरइ जस भानू। कंचन जरइ अधिक होइ बानू ॥ अब जउ मरइ सा पेम बिगी हतिया मोहिँ जेहि कारन जोगौ ॥