पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५०९

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१८५] सुधाकर-चन्द्रिका। ४०३ हौरा-मनि जो कही तुम्ह बाता। रहिहउँ रतन-पदारथ राता॥ जउ वह जोग सँभारइ छाला। देइहउँ भुगुति देहउँ जय-माला ॥ आउ बसंत कुसल सउँ पावउँ। पूजा मिस मंडप कहँ आवउँ ॥ गुरु के बइन फूल मइँ गाँथे। देखउँ नयन चढावउँ माँथे ॥ दोहा । कवल-भवँर तुम्ह बरना मइँ पुनि माना सोइ । चाँद सूर कहँ चाहिअ जउ रे सूर वह होइ ॥ १८४ ॥ = सच=सत्य। सुनि क = सुन कर = श्रुत्वा । धनि = धन्या (पद्मावती)। जारी= जारद् (ज्वाल- यति) का प्रथम-पुरुष मैं लिट् का एक-वचन । अम = ऐसा = एतादृश । काया = काय = शारीर देह ।। तन = तनु = शरीर । भउ = भई (बभूव ) = हुई। साँच हिअर्दू = हदये हृदय में। माया = मोह । देखउँ= देखें (पश्येयम् ) । जाइ = जा कर = यात्वा । जस = यथा =जैसे। भानू = भानु = सूर्य। अधिक = बहुत। हाद हो = होता है (भवति)। वानू = वर्ण = रंग = रंगत। जउ = यदि। मरइ = मरे (मरेत् ) । पेम प्रेम । बिओगी = वियोगौ = विरही। हतित्रा = हत्या । कारन = कारण । जोगी = योगी। होरा-मनि होरा-मणि । कही = कहा का स्त्री-लिङ्ग (कहा, कथ व्यक्तायां वाचि से )। बाता = वार्ता = बात । रहिहउँ = रहँगी। रतन = रत्न । पदारथ - पदार्थ। रक्त = लगी। जोग = योग । सँभारद् = सम्भरेत् = सँभाले । छाला = चैल = मृग- छाला= मृग-चर्म । देइहउँ = दूंगौ = देऊँगी (दास्ये)। भुगति = भुक्ति = भोग-विलास । देहउँ = देऊँगी। जय-माला =जय-माल = विजय की माला (स्वयंवर में स्त्री जिसे पसंद करती है उस के गले में जो माला पहना देती है, उसे जय-माला कहते हैं। यह के फूल की होती है, काव्यों में 'मधूक-माला' मिलता है)। श्राउ = आता है (आयाति)। बसंत = वसन्त-ऋतु । कुसल कुशल । पावउँ = पाएँ ( प्राप्नुयाम् )। मिस मिष व्याज = बहाना । मंडप = मण्डप = देव-मन्दिर। श्रावउँ= पाऊँगी (श्रायास्यामि )। गुरु = हौरा-मणि = एक । = बात। फूल = फुल्ल = पुष्य । म = मैं । गाँथे = गाँथा = गाँथ (ग्रनाति) का उत्तम-पुरुष में लिट् का एक-वचन । नयन = चढावउँ= चढाऊँ (उच्चालयेयम् )। माँथे = मस्तक । राता - प्रायः महुए बदून वचन आँख।