पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५१०

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४०४ पदुमावति । १६ । सुया-भेट-खंड । [१८४ -१८५ कवल = कमल । भवर भ्रमर। बरना बरन (वर्णयति) का मध्यम-पुरुष में लिट का बहु-वचन । माना मानदू (मन्यते ) का उत्तम-पुरुष में लिट् का एक-वचन । सोदू = स एव = उसी को। चाँद = चन्द्र। सूर = सूर्य। चाहित्र = चाहिए, [चाहद (इच्छति) से ] । होइ = होवे (भवेत् ) ॥ (रत्न-सेन ने) इस प्रकार से शरीर को जलाया है (इस बात को) धन्या ( पद्मावती) सुन कर, शरीर में सत्य हो गई, अर्थात् शुक की बात को सच माना, और हृदय मैं मोह (उत्पन्न ) हुआ। (कहने लगी कि इच्छा होती है कि) जिस प्रकार से सूर्य (रत्न-सेन ) जल रहा है (उस लीला को) जा कर देरहूँ; (क्योंकि) सोने के जलने से (उस में) बहुत रंगत होती है। (यहाँ सोने से रत्न-सेन को समझो जो कि विरहाग्नि में जल रहा है)। अब वह विरही यदि (मेरे) प्रेम से मर जाय (तो) मुझे हत्या लगेगी जिस के कारण कि (वह) योगी हुआ है। हे होरा-मणि, तुम ने जो बात कही (उसे मैं ने मान लिया अब मैं ) रत्न-पदार्थ (रत्न-सेन-रूप वस्तु ) में लगी रहँगो, अर्थात् उसी का ध्यान दिन रात किया करूँगी। यदि वह (रत्न-सेन) मृग- छाले के ऊपर योग को संभाले (योग बिगडे न, अन्त तक सध जाय), तो (अवश्य ) मुक्ति देऊँगी, और जय-माल (भी) देऊँगी, अर्थात् उसी के गले में जय-माल पहना अपना पति बना कर, उसी से भोग-विलास करूँगी । वसन्त-ऋतु आता है, (यदि उस ऋतु को) कुशल से पा जाऊँ, तो पूजा के बहाने देव-मन्दिर में श्राऊँगी। मैं गुरु की (तुम्हारी) बात, फूल के ऐसौ गठित्रा (बाँध) लेती हूँ; (भगवान् से प्रार्थना है, कि उस विरही को) आँखों से देरतूं (और पादर के साथ) माथे पर रक्यूँ ॥ श्राप ने (तुम्ह) (उस) कमल-भ्रमर का वर्णन किया, फिर मैं ने भी उसी को मान लिया। यदि रे (शुक) वह सूर्य है, तो चन्द्र सूर्य हो को चाहिए, अर्थात् मैं उसी के योग्य हूँ ॥ १८४ ॥ - चउपाई। हौरा-मनि जो कही यह बाता। पाण्उ पान भण्उ मुख राता ॥ चला सुश्रा तब रानी कहा। भा जो पराउ सो कइसइ रहा ॥ जो निति चलइ सँवारइ पाँखा। आजु जो रहा काल्हि को राखा ॥ अाजु कहाँ दहुँ जा। आउ मिलइ चलेहु मिलि सूत्रा॥ न जनउँ