पदुमावति । १६ । सुया-भेंट-खंड । [१८५ ) बस = बसता है (वसति)। मौन = मछली। जल = पानौ। धरती धरित्री भूमि । अंबा = अाम्र = आम । अकास = आकाश। पिरोति प्रौति। पद = अपि= पर = परन्तु। दोउ = दोनों = द्वयोः। मह = मध्य = में। अंत = अन्त । होहिं = होते हैं (भवन्ति)। प्रक एक । पाम = पार्श्व= निकट ॥ होरा-मणि ने जो यह बात कही (कि तेरे योग्य पुरुष-रत्न ले आया हूँ, दूस से पद्मावती के हाथ से होरा-मणि ने) पान (बौडा) पाया, (जिस से उम का) मुह लाल हो गया। (वहाँ से बिदा हो कर) शुक (हौरा-मणि) चला; तब रानी ( पद्मावती) ने कहा कि जो दूसरे का हुआ वह (सो) कैसे रहे। जो नित्य चलने के लिये परों को सँवारा करता है, वह आज जो रहे (तो फिर ) कल ( उसे ) कौन रकबे, अर्थात् कोई नहीं रख सकता। हे शुक, नहीं जानती कि आज कहाँ से (श्रा कर मेरो) दशा उदय हुई, (कि तुम ) मिलने आए (और अब ) मिल कर चले। मिल कर बिछुडना, मरने को ले आना है, अर्थात् मरण के समान है; यदि अन्त में (तुम्हें ) चलना ही था तो क्याँ पाए । (शुक ने कहा कि, रानी (तुम्हारी) शपथ, या रानी ( मैं सच) कहता हूँ कि, भगवान् का स्मरण करता मैं (यहाँ) रह जाता; पर) वचन से बँध कर (मैं पद्मावती से समाचार कह अभी आता हूँ, ऐसौ प्रतिज्ञा रत्न-सेन से कर) ( यहाँ) कैसे रहूँ। (इस में संशय नहीं कि) तुम ने तिस को (भगवान को) दृष्टि (कृपा) से (मेरो) ऐसौ सेवा को ; जैसे कि खभाव हो से पक्षियों का मन वन को झाडियों को सेवता है ; अर्थात् जैसे पक्षियों का मन वन की झाडियों में लगा रहता है, उसी प्रकार तुम्हारा मन मेरे में लगा रहता है। ( सो रानी घबडाओ मत, देखो,) मछली भूमि में जल में बसती है और श्राम (ऊपर) आकाश में बसता है, अर्थात् रहता है; पर दोनों में जो प्रीति है (दूस से) अन्त में (दोनों) एक संग हो जाते हैं । [ मछली की मांस में खटाई (नौबू या श्राम को फाँकी ) मिलने से बहुत ही स्वाद होता है। इस पर किसी मैथिल-कवि ने कविता की है कि- केचिद्वदन्यमृतमस्ति सुरालयेषु केचिद्वदन्ति वनिताधरपल्लवेषु । ब्रूमो वयं सकल शास्त्रविचारदक्षा जम्बौर-नौर-परिपूरित-मत्स्य-खण्डे ] मो भगवान को दया होगी तो हम लोग फिर एकहाँ हो जायँगे । यदि जौते जौ न मिलेंगे तो मरने पर मछली और श्राम के ऐसा साथ होगा ॥ १८५ ॥
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