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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५१९

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१८८-१८८] सुधाकर-चन्द्रिका। ४१३ चारो दिशा में सु-गन्ध छा रही है। ऐसा (जान पडता है कि) फुलवारी के (सब) फूल हैं। वे सखी सहेलियाँ वसन्त-ऋतु से भूली हुई हैं और वसन्त ऋतु उन में भूला हुआ है, अर्थात् वसन्त की शोभा में सब सखियाँ मोहित हैं और मखियों की शोभा देख वसन्त भी मोहित हो गया है। वसन्त की शोभा और सखियाँ को शोभा एक एक से बढ कर हैं ॥ १८८ ॥ चउपाई। भइ आहाँ पदुमावति चलो। छत्तिस कुरि भइँ गोहन भली ॥ भइ गउरी सँग पहिरि पटोरा। बाँभनि ठाउँ सहस अँग मोरा॥ अगरवारि गज-गवन करेई। बइसिनि पाँउ हंस-गति देई॥ चंदेलिनि ठमकहिँ पगु ढारा। चलि चउहानि होइ झनकारा ॥ चलौ सोनारि सोहाग सोहाती। अउ कलवारि पेम-मधु माती ॥ बानिनि देइ सैंदुर भल माँगा। कइथिनि चलौं समाहिँ न आँगा ॥ पटइनि पहिरि सुरंग तन चोला। अउ बरइनि मुख खात तमोला ॥ दोहा। कई पूजा चलौं पउन सब गोहने फूल डार लेइ हाथ। बौसुनाथ पदुमावति के साथ ॥ १८ ॥ भइ = भई (बभूव ) । श्राहाँ = श्राकान = पुकारने को बोली। पदुमावति = पद्मावती। चली = चल (चलति) का प्रथम-पुरुष में भूत-काल का एक-वचन । छत्तिस छत्तीस = षट्त्रिंशत् । कुरि = कुली = कुल की = जाति को। गोहन = गोपन = रक्षा = साथ । भली = अच्छी = वरा। गउरी= गौरी= पार्वती। सँग = सङ्ग = साथ । पहिरि = पहन कर (परिधाय)। पटोरा = पट्टोर्ण = पट्ट और ऊर्ण के वस्त्र = रेशमी और ऊनी कपडे । बाँभनि = ब्राहाणौ। ठाउँ = स्थान । सहम = सहस्र। अँग = अङ्ग । मोरा मोरती है = ऐंठती है = मोडती है = मोर = मोडद (मुड मर्दने से )। अगरवारि = अगरवालिन = अगरवाले को स्त्री। गज-गवन = गज-गमन = हाथी को चाल । करेई कर (करोति ) = करती है। बइसिनि = बैसिनि = वैश्या वा बैम ठाकुर की स्त्री। 1