पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५४३

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२००-२०१] सुधाकर-चन्द्रिका। ४३७ ऐमा (उसे ) देखा ॥ (उम के अङ्ग पर ) चन्दन लगाया, कि क्या जानें क्षण भर के लिये जाग उठे ; ( परन्तु सो बात न हुई, चन्दन लगाने से) और भी अधिक (दृष्टि-किरण- रूप) फार के धार देह में लगने लगे ॥ तब (पद्मावती ने उस के) हृदय में चन्दन से अक्षरों को लिखा, कि त ने भिक्षा के योग्य योग को नहीं सौखा ॥ जब मैं तेरे द्वार पर आई तब दूँ सो गया तो तुझे कैसे भुक्ति (भोग-भिचा) को प्राप्ति हो । अब तो हे सूर्य यदि तुम चन्द्र ( मेरे) में आसक्त हो तो फिर मात आकाश चढ कर भाना ॥ (पद्मावती) इस बात को लिख कर सखियों से कहने लगी, कि दूमौ स्थान के लिये मैं व्रत कर रही थी॥ सो यदि (इस अवसर में मैं ) प्रगट होती है तो मेरा वैसा ही विनाश हो जायगा, अर्थात् वैसी ही दशा हो जायगी जैसौ कि संसार में दीप के फतंगे की होती है (कि भस्म हो कर प्राण दे देता है परन्तु दौप-शिखा से भेंट नहीं होती) ॥ भूः, भुवः, स्वः, महः, जन, तप, और सत्य ए सात ऊपर के लोक सप्त श्राकाश कहे जाते हैं। किसी कार्य-सिद्धि के लिये जो नियम किया जाता है कि जब तक कार्य सिद्धि न हो तब तक मैं जल हौ पौकर रहगा वा निर्जल उपवास करूँगा इत्यादि, ऐसे नियम को व्रत कहते हैं। (हे सखिो) मैं जिमी की ओर आँख उठा कर देखती है, वही उसी स्थान में जीव दे देता है; दसौ दुःख से मैं कहाँ (बाहर) नहीं निकलती, कि कौन ऐसौ हत्या को लेवे । हत्या एक महापाप है जो किसी के मारने से मनुष्य को लगता है, जैसे ब्राह्मण को मारने से ब्रह्महत्या, गौ को मारने से गोहत्या इत्यादि ॥ २० ॥ - 3; चउपाई। कौन्ह पयान सबन्ह रथ हाँका। परबत छाडि सिंघल-गढ ताका ॥ भबलि सबइ देओता बलौ। हतिारिन हतिबा लेइ चली ॥ को अस हितू मुए गह बाहौं। जउँ पइ जिउ आपुन तन नाही ॥ जउ लहि जिउ आपुन सब कोई। बिनु जिण सबइ निरापुन होई ॥ भाइ बंधु अउ मौत पिपारा। बिनु जिण घडी न राखइ पारा ॥ बिनु जिण पौंड छार करि कूरा। छार मिलावइ सो हित पूरा ॥ तेहि जिण बिनु अब मर भा राजा। को उठि बइठि गरब सउँ गाजा ॥