४६४ पदुमावति । २२ । पारबती-महेस-खंड । [२१२-२१३ जब देवताओं को बहुत दुःख देने लगा। तब देवों को प्रार्थना से महादेव ने उस को मारने के लिये त्रिशूल उठाया; और त्रिशूल गोद कर उस को शरीर को छत्र के ऐसा अपने शिर के ऊपर उठा लिया ; दूस पर उस ने कहा कि मैं तुम्हारे ऊपर हो गया दूस लिये मैं जौता श्राप हार गए। दूस वचन-चातुरौ से महादेव ने प्रसन्न हो कर कहा कि वर माँग ; गजासुर ने कहा कि भगवन् यदि प्रसन्न हो तो मुझे मार कर सु-गति दीजिए और मेरे चर्म को अपना वस्त्र बनाइए और आज से आप का एक नाम कृत्ति-वासाः (हाथी का चर्म, जिस का वस्त्र हो) हो। तब से महादेव गज का वस्त्र धारण करते हैं; काशीखण्ड के ६४३ अध्याय में दूस की सविस्तर कथा लिखी हुई है। गट्टे में रुद्राक्ष की पहुंची है; माथे पर चन्द्रमा और जटा में गङ्गा है। हार्थों में चामर, घण्ट, और उमरू हैं ; गौरवर्ण को धन्या पार्वती साथ में है। और मंग में हनुमान वौर भी श्राए; वे ऐसी सूरत बनाए हैं जानौँ वन्दर का बच्चा हो । (महादेव ने) आते-हौ कहा कि श्राग न लगाो; तुम्हें उसी को कसम है जिस के लिये कि जल रहे हो (थोडा ठहर जाश्री बताओ तो) ॥ कि तप करने में पूरे नहीं हुए कि (किसी कारण से ) योग को नष्ट कर दिया; जौते हो क्यों जी निकालते हो; उस वियोग-दुःख को मुझ से कहो ॥ २१२ ॥
चउपाई। कहेसि को मोहिं बातहिँ बिरमावा। हतिभा केरि न डर तोहि अावा ॥ जरइ देहु दुख जरउँ अपारा। निसितर परउँ जाइ एक बारा ॥ जइस भरथरौ लाग पिंगला। मो कहँ पद्मावती सिंघला ॥ मइँ पुनि तजा राज अउ भोगू। सुनि सो नाउँ लौन्छ तप जोगू प्रहि मढ सेपउँ आइ निरासा। गइ सो पूजि मन पूजि न आसा ॥ त यह जिउ डाढे पर दाधा। आधा निकसि रहा घट आधा॥ जो अध-जर सो बिलंब न लावा। करत बिलंब बहुत दुख पावा ॥ दोहा। प्रतना बोलि कहत मुख उठौ बिरह का आगि। जउँ महेस न बुझावत सकल जगत हुत लागि ॥ २१३ ॥