२२७ - २२८] सुधाकर-चन्द्रिका। ४८३ ७ दूत जा कर (रत्न-सेन को कहौ) ऐसी बात (गन्धर्व-सेन से) कही, राजा (गन्धर्व-सेन) सुनते ही क्रोध से लाल हो गया। जगह जगह पर सब राज-कुमार माख गए, (कहने लगे कि) किन लोगों ने अभी तक योगी के जीव को रख छोडा है। अब भी जल्द उपाय करो, ऐसा मारो (कि सब मर जायँ) पाप क्यों न हो । मन्त्रिओं ने कहा कि ठहरो मन में समझने दो, योगिनों से लड़ने में इज्जत नहीं रहती। उन भिखारिओं को मारिए तो क्या (फल), (और लड कर ) हार मानिए तो (बडौ) लज्जा हो। मरने में भी भला नहीं और मारने में भी मोक्ष नहीं, दोनों बातों में तुम लोगों को दोष लगेगा। यदि गढ के नीचे एकट्टै हुए हैं रहने दो, खेल छोड और क्या योगी अच्छे हैं, अर्थात् योगी लोग सेवाय खेल कूद के और क्या कर सकते हैं। यदि गढ के नीचे हैं तो रहने दो, दूस (उठा देने की) बात को न चलायो, जो (योगी लोग) पत्थर को खाते है, उन लोगों के ऐसे किस के मुंह में दाँत हैं ॥ २२॥ चउपाई। गए जो बसिठ पुनि बहुरि न आए। राजइ कहा बहुत दिन लाए ॥ न जनउँ सरग बात दहुँ काहा। काहु न आइ कहौ फिरि चाहा ॥ पाँख न कया पउन नहिँ पाया। केहि बिधि मिलउँ होउँ केहि छाया ॥ सवरि रकत नइनहिँ भरि चूा। रोइ हकारेंसि माँझी सूत्रा ॥ परहिँ जो आँसु रकत कइ टूटौ। अबहुँ सो रातो बौर-बहूटौ ॥ उहइ रकत लिखि दोन्ही पाती। सुबइ जो लौन्ह चाँच भइ रातौ ॥ बाँधा कंठ पडा जरि काँठा। बिरह क जरा जाइ कहँ नाठा ॥ दोहा। मसि नइना लिखनी बरुनि रोइ रोइ लिखा अकस्य । आखर दहहिँ न कोई गहइ ( सो ) दोन्ह परेवा हत्य ॥ २२८॥ गए। बसिठ = वसौठ = वसिष्ठ = दूत । पुनि = पुनः । बहुरि =भूयः = लौट कर। श्राए = (आययुः)। राजदू = राजा ने। कहा = अकथयत् । बहुत = गप्र- बडतर
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