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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६४१

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२४१ - २४२] सुधाकर-चन्द्रिका। ५२३ दाह । सो प्रावह प्रादूए= कया =काय= शरीर। कौन्ह = किया (अकरोत् )। अगि-डाह = अग्नि-दाह = अग्नि से = सः = वह । सब = सर्व । गुरु कहँ = गुरु को। भण्उ = भया (बभूव) हुआ। अगाइ = आगाह = विदित। तब = तदा। उडत-छाला उड्डयन-चैल = उडने-वाली छाल = जिसे शरीर में रखने से मनुष्य को उडने की शक्ति होती है। लिखि = लिख कर (लिखित्वा) । दीन्हा = दिया (अदात् ) । श्राउ = श्राव (प्रायाहि)। चाहउँ= चाहता हूँ (इच्छामि)। सिधि = सिद्ध । कौन्हा = करना (करणम् ) । (आयाथ)। स्थाव श्याम। सुलकवन = सुलक्षण = जिस में सुन्दर लक्षण हाँ। जीउ= जीव । बस = बसता है ( वसति)। नाउँ= नाम = नावँ । नदूनहि = नयनों के= आँखों के। भीतर = अभ्यन्तर । पंथ = पन्थाः = राह। हदू = है (अस्ति) । हिरदहि = हृदय के । ठाउँ= ठाव = स्थान ॥ जिम प्राशा में (कि राजा जी जाय) शुक था, उस आशा को पाया, अर्थात् रत्न-सेन जौ उठा, पेट में साँस फिर आई और जीव (प्राण) भी लौट आया । (राजा रत्न-सेन ने) जाग कर (सुग्गे को) देखा, सुग्गे ने भी (राजा के सामने ) शिर झुकाया, ( पद्मावती को) चिट्ठी दी, और मुंह से ( पद्मावती का) संदेसा सुनाया। ( कहा कि ) गुरु ( पद्मावती) ने (तुम्हारे) कान में दो शब्द डाला है, (एक शब्द तो यह है कि) गुरु (तुझे) बोलाता है, ( और दूसरा शब्द यह कि कहो) चेला जल्द श्रावे । (गुरु ने) तुझे भ्रमर बनाया है और आप कमल हुत्रा है, और मुझ पची को मध्यस्थ कर (तेरे पास ) भेजा है। (गुरु ने) तुझ से, श्वास-वायु के द्वार से, मन को लगाया है, दृष्टि को फैला कर (बिछाई) तेरी राह जोह रहा है। जिस तरह तुम्ह ने अपनी देह को भाग में भस्म कर दिया, वह सब गुरु को मालूम हुआ है। तब (इस पत्रौ को) उडत-छाला ( के ऐसा) लिख दिया है, (और कहा है कि) जल्द श्राव, मैं (तुझे) सिद्ध किया चाहता है॥ (और भी कहा है कि) हे सुलक्षण श्याम (कृष्ण-स्वरूप) (शीघ्र) आओ, (मेरा) जीव तुम्हारे नाम में बस गया है; (तुम्हारे लिये) आँखों के भीतर राह और उदय के भौतर स्थान है ॥ २४१ ॥ चउपाई। सुनि कइ असि पदुमावति मया। भा बसंत उपनी नइ कया ॥ सुत्रा क बोलि पउन होइ लागा। उठा सोइ इनुक्त होइ जागा ॥ -