५३४ पदुमावति । २8 । मंत्री-खंड । [२९६ - २४७ बाइस हजार सिंहलो हाथी चलाए गए (जिस से) पृथ्वी पर के सब घर और पहाड हिल उठे। सब (हाथी, घोडे, पैदल) बराबर (पैर) दे कर जगत् (भूमि) को चाँपा (जिस से) इन्द्र डर गया, वासुकि नाग का हृदय काँपने लगा। सजे हुए करोड पद्म रथ पाए, (जिन से) पहाड धूर हो कर श्राकाश में उडने लगे । ( सेना के ) चलते जाना वहाँ पर भूडोल आ गया, कछुए की पीठ टूट गई और उस का हृदय डर गया। पुराणों में कथा है कि भगवान कच्छप का अबतार ले कर पृथ्वी को अपनी पीठ पर रकबे हुए हैं जिस से वह नीचे नहीं जाती। सेना से कच्छप को पौठ का टूटना यह अतिशयोक्ति है जैसा विहारी ने सतसई में लिखा है कि- "अहो पथिक कहियो तुरत गिरिधारी साँ टेरि । दृग झरि लाई राधिका बह्यो चहै ब्रज फेरि ॥" तोष कवि ने भी कहा है,- गोपिन के असुत्रान के नौर पनारे भए बहि के भए नारे । नारे भए सो भई नदिनाँ नदित्रा नद है गए काटि करारे ॥ बेगि चलो जू चलो ब्रज को कवि तोष सुनो ब्रज-राज दुलारे । वे नद चाहत सिंधु भए अब सिंधु ते हैहैं जलाहल सारे ॥ (छत्रपतिओं के) छाते से खर्ग छा गया सूर्य अलोप गया, दिन में रात ऐसी देख पड़ने लगी । (जान पडा कि ) इन्द्र देवराज क्रोध कर (जगत् को विध्वंस करने के लिये) चढा है ॥ ३४६ ॥ चउपाई। देखि कटक अउ मइमत हाथी। बोले रतन-सेन के साथौ ॥ होत आउ दर बहुत असूझा। अस जानत हहिँ होइहइ जूझा ॥ राजा तूं जोगी होइ खेला। इहइ दिवस कहँ हम भए चेला ॥ जहाँ गाढ ठाकुर कहँ होई। संग न छाडइ सेवक सोई ॥ जो हम मरन दिवस मन ताका। आज आइ सो पूजी साका ॥ बरु जिउ जाउ जाण जनि बोला। राजा सत्त सुमेरु न डोला ॥ गुरू केर जउँ आसु पावहिँ। सउँह होइ हम चकर चलावहिँ ॥
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