२५८ - २६०] सुधाकर-चन्द्रिका। परमात्मा ने प्रौति-बेलि को अमर कर के बोया है। यदि बोई के स्थान में पोई पाठ हो तो पोई = पोअर (पचति ) का भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग का एक-वचन समझना और तब 'प्रौति-बेलि को अमर कर के पोया है अर्थात् बनाया है' ऐसा अर्थ करना । (यह) दिन दिन बढती है नौण नहीं होती। प्रौति-बेलि के साथ साथ अपार विरह भी रहता है जिस के झार (कटुता) से स्वर्ग और पाताल (दोनों ) जलते हैं। प्रौति-बेलि अकेली चढ कर (स्वर्ग और पाताल को) छा लेती है, दूसरी बेलि दूस को समता को नहीं पाती है ॥ जब प्रीति-बेलि (हृदय में) अरुझ जाती है, तब सुख-रूप शाखा उस की छाया में पड जाती है, अर्थात् प्रौति-बेलि के छा लेने से सुख-शाखा उस की छाया में पड कर दब जाती है, (जब) प्रियतम आ कर मिले (तब ) ट्राक्षा-वेलि के रस को चकवे, अर्थात् द्राक्षा-रस सदृश प्रियतम मिले तब प्रौति-बेलि-रस से दुःखित प्राणी सुख पावे नहीं तो जन्म भर प्रौति-बेलि में अरुझा तडप तडप कर कराहता रहे ॥ २५८ ॥ चउपाई। खेऊ॥ पदुमावति उठि टेकइ पाया। तुम्ह हुति हो प्रोतम कइ छाया ॥ कहत लाज अउ रहइ न जौज। प्रक दिसि आगि दोसरि दिसि सौज ॥ तुम्ह सौ मोर खेवक गुरु देऊ। उतरउँ पार तेहो बिधि सर उदइ-गिरि चढत भुलाना। गहने गहा कवल कुम्हिलाना ॥ आहट होइ मरउँ तेहि भूरौ। यह सुठि मरन जो निअरहि दूरौ ॥ घट मँह निकट बिकट भा मेरू। मिलेहु न मिलइ परा तस फेरू ॥ दामवती नल हंस मिलावा। तब हीरामनि नाउँ कहावा॥ - दोहा। मूरि सजीवनि दूरि इमि सालो सकतौ बानु । प्रान मुकुत अब होत हइ बेगि देखावहु अानु ॥ २६० ॥ पदुमावति = पद्मावती। उठि = उत्थाय = उठ कर। टेक = टेकतो है (टोकयति)। पाया पाय = पैर = पाद। तुम्ह इति = तुम से। हो= अहो। पौतम = प्रियतम । 71
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