पृष्ठ:पदुमावति.djvu/७०५

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२७१ -२७२] सुधाकर-चन्द्रिका। ५८७ (बैठा) था वहाँ आगे जा कर बह) भाट खडा हो गया। सब राजा राय को (गन्धर्व-सेन के आगे) खडा देख कर बाएँ हाथ से (गन्धर्व-सेन को ) आशीर्वाद दिया। ( और कहने लगा कि ) हे गन्धर्व-सेन दूँ बडा राजा है, और मैं (भाट) महादेव को मूर्ति है, ऐसा ( लोगों ने ) कहा है। (सो सुन ) योगी पानी है और हे राजा, दूँ श्राग है, आग और पानी से युद्ध नहौँ मोहता ॥ हे राजा, दूँ मन में समझ भाग पानी से बुझ जाती है। (यह योगौ ) तेरे हौ दरवाजे पर खप्पड लिए (आया है। इसे ) भौख दे, लड मत ॥ २७१ ॥ चउपाई। भइ अगिाँ को भाट अभाऊ। बाएँ हाथ दोन्ह बरभाऊ॥ को जोगी अस नगरी मोरौ। जो देइ सँधि चढइ गढ चोरी॥ इँदर डरइ निति नावइ माथा। किरिसुन डरइ कालि जे. नाथा ॥ बरंभा डर चतुर-मुख जार। अउ पातार डरइ बलि बासू ॥ मेघ डरहिँ बिजुरौ जिन्ह डौठौ। कुरुम डरइ धरती जेहि पौठौ ॥ धरति डरइ मंदर अरु मेरू। चंद सुरुज अउ गगन कुबेरू ॥ चहउँ तो सब भंजउँ गहि केसा । अउ को कौट पतंग नरेसा॥ दोहा। भदूबभूव= -वाला। बोला भाट नरेस सुनु गरब न छाजा जीउँ। कुंभकरन कइ खोपडौ बूडत बाँचा भौउँ ॥ २७२ ॥ हुई। अगिाँ = आज्ञा = का। को = कः = कौन । भाट = स्तुति करने अभाऊ = अभागा = अभाग्य । बाएँ = वाम । हाथ = हस्त । दोन्ह = अदात् = दिया। बरभाऊ = वरभाव = आशीर्वाद। जोगौ = योगी। अस = एतादृश ऐमा। नगरौ = पुरी= शहर । मोरी= मम = मेरौ । जो= यः । देव = दत्त्वा = दे कर। मैधि = सन्धि = मध । उचलति चढता है। गढ = गाढ = -दुर्ग किला। चोरी-चौर्यण = चोरी से = चोरी के लिये। दूँदर = इन्द्र = देवताओं का राजा डर = दरति = डरता है। निति= नित्य = रोज । नाव = नामयति = नवाता है = झुकाता है। माथा = मस्तक शिर । किरिसुन = कृष्ण = यदुवंशिओं में प्रधान पुरुष । चढ=