पदुमावति । २५ । सूरी-खंड । [२८३ -२८४ - अर्थात् श्राप के क्रोध से डरता हूँ इस से मुंह से बोल नहीं निकलती। पर जो बात आगे भली हो (उसे ) बेधडक हो कर सेवक को कहना चाहिए, (मालिक को) रिस लगे तो लगे। सुग्गा निश्चय कर सुन्दर अमृत फल हो का खोजने-वाला है, ( यह ) न विक्रम है न राजा भोज है। मैं तो आप प्रथम स्वामी का दास हूँ, जब तक जीऊँ (तब तक आप कौ) सेवा करूँ (यही मेरा सङ्कल्प है)। पर जिस ने जीव दिया, अर्थात् मेरा प्राण बचाया, और (मेरे इस ) देश को देखाया, वह राजा निश्चय कर जीव में बसता है। जो पचौ 'एक दूं ही' है 'एक दूं ही' है वही मन सुमिरा करता है, वही पक्षौ संसार में लालमुँही है। अर्थात् जो एक को प्रमु मान कर मनमा, वाचा, और कर्मणा, से उसी की सेवा में रहता है, उसी के मुंह की लाली सदा बनी रहती है। आँख, वचन, कान और बुद्धि सब तेरे प्रसाद से (मेरे में ) हैं, मेरी यही सेवा है कि नित्य (श्राप के लिये) भवचन बोला करूँ ॥ राजा विक्रम के लिये दूस ग्रन्थ का ३५२-३ ५३ पृ० देखो । राजा भोज प्रसिद्ध संस्कृतानुरागी विक्रम के बाद धारानगरौ का राजा हुआ था। एक एक स्लोक पर लाख लाख रुपए दिए हैं। इस को विस्तार से कथा भोजप्रबन्ध में लिखी है। अवध और राजपुताने में एक प्रसिद्ध पक्षी है, जिस की बोली में 'एकदू हूँ हो' 'एकद लँ हौ' ऐमौ धुनि जान पड़ती है। इसी लिये उस पक्षी का नाम ही ‘एकद यूँ हो' पड़ गया है। कहावत है कि वह पचौ भगवान की स्तुति किया करता है, कि हे भगवान इस संसार में (सच्चा अविनाशी) एक ही है ॥ २८३ ॥ चउपाई। जउ पंखौ रसना रस रसा। तेहि क जीभ अबिरित पइ बसा तेहि सेवक के करमहि दोसू । सेवा करत करइ पति रोस् ॥ अउ जेहि दोस न दोसहि लागा। सो डरि तहाँ जीउ लेइ भागा॥ जउँ पंखौ कहवाँ थिर रहना। ताकइ जहाँ जाए जो डहना ॥ सपत दीप फिरि देखेउँ राजा। जंबू-दीप जाइ पुनि बाजा ॥ तहँ चितउर गढ देखेउँ ऊँचा। ऊँच राज सरि तोहि पहूँचा ॥ रतन-सेन यहु तहाँ नरेसू । आण्उँ लैइ जोगी कर भेसू ॥
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