पृष्ठ:पदुमावति.djvu/७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२०-२१] मुधाकर-चन्द्रिका। गुरुओं के प्रसाद से जब मलिक मुहम्मद प्रसिद्ध कवि हुए, तब अपनी प्रशंसा लिखने को तयार हुए, नहीं तो अपनी प्रशंसा करना केवल अभिमान-सूचक है ॥२०॥ चउपाई। जग एक नयन कबि मुहमद गुनी। सोइ बिमोहा जेइ कबि सुनी ॥ चाँद जइस जग बिधि अउतारा। दोन्ह कलंक कौन्ह उँजिबारा॥ सूझा एका नयनाँहा। उमा सूक जस नखतन्ह माँहा ॥ जउ लहि आँबहि डाभ न होई। तउ लहि सुगंध बसाइ न सोई ॥ कौन्ह समुदर पानि जउ खारा । तउ अति भण्उ अझ अपारा॥ जउ सुमेरु तिरसूल बिनासा । भा कंचन गिरि लागु अकासा ॥ जउ लहि घरौ कलंक न परा। काँचु होइ नहिँ कंचन करा ॥ दोहा। नयन से एक नयन जस दरपन अउ तेहि निरमर भाउ । सब रुपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिँ कइ चाउ ॥ २१ ॥ बिमोहा मोहित हो गया। अउतारा अवतार दिया। नयनाँहा आँख से। उपा = उदय हुआ। सूक = शुक्र ग्रह। माँहा = मध्य =बौच । श्राबहि = श्राम में । डाभ =दर्भ = कुश के ऐमा बौर वा मञ्जरी। बसाइ = बासा जाता है। तिरसूल = त्रिशूल। चाउ = चाह= इच्छा ।। ( यद्यपि) मुहम्मद कवि को एक-हौ नयन है, (तौ भी) (मुहम्मद ) ऐसे गुण हैं, कि जिम कवि ने (दून की वाणी को) सुना सोई मोहित हो गया। कवि का अभिप्राय है कि यद्यपि मैं दोषी हूँ (काना होने से ), तथापि उमौ दोष के साथ मेरे में यह बडा भारी गुण है, कि मेरी कविता को जो सुनता है मोई आनन्द से मोहित हो जाता है ॥ ऐसा परम्परा से प्रसिद्ध है कि शीतला माता के निकलने से दून को एक आँख मारी गई, और चेहरा भी खराब हो गया। एक वार एक राजा ने दून को न पहचान कर, महा कुरूप मुख को देख कर, बडे स्वर से कुछ व्यङ्ग बचन सुना कर हँसा, इस पर इन्हों ने बडे धैर्य से उत्तर दिया कि “मोहिँ का हँससि कि कोहरहि,” अर्थात् मुझे