पृष्ठ:पदुमावति.djvu/७९

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२१ - २२] सुधाकर-चन्द्रिका। ३२ (इन सब दृष्टान्तों से यह स्पष्ट होता है, कि) जिस घडी तक कलङ्क (किसी प्रकार का एक दोष ) नहीं पडता, तब तक काँच (बे-गुण का मनुष्य ) सोने के रूप (आदरणीय रूप) नहीं होता ॥ (मेरी) एक आँख ऐसी है जैसा दर्पण (आईना), और तिस दर्पण का निर्मल भाव है, अर्थात् जैसे निर्मल दर्पण का स्वभाव है, कि पण्डित वा चाण्डाल जो उस में देखे, सब का प्रतिविम्ब जैसा का तैसा देख पड़ता है, तिमी प्रकार मेरे नेत्र में सब लोगों का रूप जैसा का तैसा देख पडता है ॥ ( यद्यपि मैं काना हूँ तथापि) सब रूपवान् लोग मेरे पैर को पकड कर इच्छा कर के ( मेरे) मुख को जोहा ( चुप चाप देखा) करते हैं ॥ कवि का सिद्धान्त है, कि विना एक दोष हुए गुण नहौं उत्पन्न होता। इसी लिये इस ने अपने इस ग्रन्थ में भी चौपाइओं को दो चौकडी के बदले, लँगडा कर, सात-हौ पैर रकबा, और दोहे के मात्रा को भी प्रायः घट बढ कर दिया। इस में ग्रन्थ-कार का यह अान्तरिक अभिप्राय है, कि मेरे भक्त लोग तो मेरे ग्रन्थ को आदर से पढे-होंगे, परन्तु इस प्रकार का ग्रन्थ में दोष रहने से मेरे प्रतिस्पर्धी लोग भी हास्य-बुद्धि से इसे पढेंगे। इस प्रकार मेरे ग्रन्थ का सर्वत्र प्रचार हो जायगा ॥ २१ ॥ ( चउपाई। चारि मौत कबि मुहमद पाए । जोरि मिताई सरि पहुचाए ॥ युसुफ मलिक पंडित अउ ग्यानौ। पहिलइ भेद बात वेइ जानौ ॥ पुनि सलार कादिम मति-माँहा। खाँडइ दान उभइ निति बाँहा ॥ मिाँ सलोने सिंघ अपारू। बौर खेत रन खरग जुझारू । सेख बडे बड सिद्ध बखाना। कइ अदेस सिचन्ह बड माना ॥ चारिउ चतुरदसा गुन पढे । अउ संजोग गोसाई बिरिख जो आछहि चंदन पासा। चंदन होहिं बेधि तेहि बासा ॥ गढे॥ दोहा। मुहमद चारि-उ मौत मिलि भy जो एकइ चित्तु । प्रहि जग साथ जो निबहा ओहि जग बिछुरहि कित्तु ॥ २२॥ मति-माहा = मतिमान्। उभदू = उभडती है = उठती है। खेत = क्षेत्र । रन = रण=