पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/२०९

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Pada 2] Àscent १५१ (२) अनुवाद. रे मन ! फागुन के दिन चार ही हैं, इन्हीं में होली खेल ले | हाथों के ताड़न के बिना ही पखावज बज रही है । अनाहत की झनकार उठ रही है । विना स्वर के छतीसों राग गाये जा रहे हैं । रोम रोम में श्रेष्ठ रंग भरा हुआ है । 1 ( मैंने ) शील सन्तोप रूपी केसर घोला और रूपी पिचकारी से छोड़ा। गुलाल उड़ते उड़ते अम्बर लाल हो गए । अपार रंग बरस रहा है । ( प्रेम प्रीति दोनों ) शरीर के सब परदे खोल दिये हैं और जनलज्जा तज दी है । होली खेल कर प्रिय घर आये; वही आगमन प्यारी के प्रति प्रिय के प्रेम का चिन्ह है | मीरा कहती है कि हे गिरिधर नागर ! मैं आपके चरण-कमल पर बलिहारी हूँ ।