पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/२१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

Pada [7] Ascent १६१ (७) अनुवाद ब्रह्मरंध पर ध्यान लगाकर देखो। अपने में वहां अलक्ष्य पुरुष ने वास किया है। वहां ताल, मृदंग, पावा और बाँसुरी बज रहे हैं। हर क्षण नौबत झड़ती है । इड़ा और पिंगला दोनों चँवर डुला रही हैं और सुषुम्ना सेवा करती है | चांद और सूरज दो मशाल जल रहे हैं । सत्य और सुकृत दोनों गश्त लगाते हैं । सप्त सागर का मालिक वहां स्नान कर रहा है; जहाँ पर मोतियों की लगातार वर्षा हो रही है । कोई विरला सन्त ही वहां पहुँच पाता है, मन- मुख की वहां गिनती तक नहीं होती । गोरख कहता है कि हे मत्स्येन्द्रनाथ ! मैं आपका दास हूं। मुझ गरीब की क्या गिनती है । प्रतिशब्द में आप विराजमान हैं, आपके बिना दूसरी कोई वस्तु मेरी दृष्टि में नहीं आती ।