पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/२३५

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Pada 14] Ascent १७७ (१४) अनुवाद. जब से घोर अनाहत शब्द सुना, इन्द्रियाँ थकित हो गईं । मन गलित हो गया, सकल आशाएं जल गई । जब अमल में सुरत मिल गई, तब नेत्र घूमने लगे, काया शिथिल हो गई। रोम रोम में उत्पन्न होकर आनन्द ने आसानी से आलस्य को भंग कर दिया । मतवाले होकर जब शब्द में समाते हैं, तब अन्तर का कण कण भीग जाता है । कर्म और भ्रम के बन्धन छूट गए । द्वैतरूपी विपत्ति नष्ट हो गई । अपने को विसर कर जगत को भी बिसरा । फिर पंचतत्वों का समुदाय कहाँ रह गया ? लोक के भोग की कोई स्मृति न रह गई। गुणी लोग ज्ञान को भूल गए । शुकदेव मुनि कहते हैं कि ऐ चरणदास ! वहां लीन हो जाओ । भाग्य से ऐसा ध्यान पाओ कि शिखर की नोक पर चढ़ जाओ ।