पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/२५९

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Pada 26] Ascent. २०१ (२६) अनुवाद. हे साधो । सहज समाधि भली है । गुरु के प्रताप से जिस दिन से जागृत हुई है, प्रतिदिन बढ़ती ही गई । . न आँख मूँदता हूँ, न कान रुँधता हूँ । थोड़ा भी कष्ट | नहीं उठाता । खुले नेत्रों से पहचानता हूँ और हँस हँस कर सुन्दर रूप निहारता हूँ । निरन्तर शब्द से मन लग गया है । ( मन ने मलिन वासना त्याग दी है । ऐसी ( अखण्ड ) तारी लगी है कि उठते बैठते कभी भी नहीं छूटती । कबीर कहते हैं कि, यह उन्मनि रहती है। जिसको मैंने प्रकट कर के गाया है। दुख सुख से परे एक अकथ परम-पद है, जिसमें मैं समा गया हूँ ।