पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/४८०

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८ परमार्थ सोपान भाषा आप की एकाघ पूर्वी शब्द लिये हुये शुद्ध व्रजभाषा है, जो बहुत ही प्रौढ़, परिपक्क और सुव्यवस्थित है । इन की भाषा सभी भावों, दशाओं, विचारों, हावों आदि का पूर्णता से चित्रण करती है तथा लचीली, मधुर और संगठित है । अर्थव्यक्ति की कुछ न्यूनता न होते हुये गाम्भीर्य और सामर्थ्यश्रेष्ठ हैं । काव्य सशक्त हैं, भावों में मौलिकता है और कल्पना में अपूर्व कोमलता । भाव व्यंजना स्वाभाविकता एवं मार्मिकता है । वर्णनपूर्णता के आप उस्ताद और लाक्षणिक मूर्तिमत्ता सुगमता पूर्वक सामने रखते रहते हैं । वर्णनों मे रस निचड़ा पड़ता है और हृदयपक्ष का चमत्कार कौशल देखते ही बनता है । कलापक्ष का भी आरम्भ है। संयोग और वियोग दोनो प्रकार क शृंगार मे कथन शक्ति का कमाल ह और मधुरिमा का चित्रण ही सामने खड़ा है । वात्सल्य और शृंगार दोनों भावाँ से भक्ति भरी पडी है । शृंगार का वर्णन करते हुवे भी अर्थ आदर्शों से च्युत नहीं हुये हैं । वल्लभीय सम्प्रदाय की महत्ता सव से अधिक आपही की लेखनी पर अवलंबित है । इन के मरने पर स्वयं विठ्ठल नाथजी ने कहा था कि वल्लभीय सम्प्रदाय का जहाज आज डूब गया । रहते आप गोवर्धन गिरि के वल्लभीय महान कृष्णमन्दिर के निकट पूजक के रूप में थे, किन्तु मरने के समय पारासोली चले गये । यह वैष्णवों का परम पवित्र स्थान है । इन की यह दशा सुन कर गोस्वामी विठ्ठलनाथ जी भी वहीं पहुंच और उन्हीं के सामने इन का शरीरान्त हुवा | कवियों ने यहां तक कहा है कि, सूर सूर तुलसी ससी उड़गन केशवदास । अत्र के कवि खद्योत सम जहँ तहँ करत प्रकास ॥ वर्तमान समालोचकों का ऐसा मत उचित ही है कि हिन्दी के सर्वोत्कृष्ट कवि गोस्वामी तुलसीदास हैं और उन्हीं के पीछे साहित्य गौरव में महात्मा सरदास का पद है। तुलसी की भक्ति दास भाव