पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/४८८

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१६ परमार्थ सोपान था और सं. १६६० में यह पंचत्व को प्राप्त हुये । आप जातिके घुन्ना थे और नाम महावली था । सौम्य प्रकृतिवाले होने तथा सबको दादा दादा कहने से दादू दयाल कहलाये । कवीरात्मज कमाल के आप शिष्य थे। कभी क्रोध नहीं करते और सवपर दया करते थे । आप बहुत बड़े उपदेशक ऋषि हो गये हैं । इनका चलाया हुवा दादूपन्थ चल रहा है। सुंदरदास, रजवजी, जनगोपाल, जगन्नाथ, मोहनदास, खेमदास आदि इनके शिष्य सुकवि थे । इन्होंने सबद और वानी ग्रन्थ रचे, जिन में संसार की असारता और रामभक्ति के उपदेश सबल छंदों द्वारा दिये गये हैं । भजन आपके बहुत हैं । कविताकी दृष्टि से भी इनकी रचना मनोहर, स्वानुभवपूर्ण, और यथार्थ भाषिणी है । दादूजी को अध्यात्म, कृत्य और समर्थन अंग नामक इनके और ग्रन्थ १९०२ के खोज में मिले हैं दादू पन्थवाले निर्गुणोपासना की रीतिपर निरंजन निराकार की उपासना करते, और सत्तराम द्वारा आपस में अभिवादन करते हैं । ये लोग तिलक, माला, कंठी आदि का व्यवहार नहीं करते । दादू की भाषा जयपुरी मिश्रित पश्चिमी हिन्दी है । कुछ पद गुजराती और पंजाबी के भी हैं । आपने भी हिन्दू मुसलमानों के मिलानेका प्रयत्न किया और जाति पाति को आदर नहीं दिया । अकबर सम्राटनें बहुत हठ करके आपको बोलाया और ४० दिनोंतक सत्संग किया । इन के मिलने के पीछे ही दीनइलाही मत निकाला । इलाही कलमा था " अल्लाहो अकबर जिल्ले जलाल हू जनगोपालने दादू की जन्मलीला कही दादूदयाल सद्गुरुमहिमा ईश्वरीय व्यापकता दया आदि सिखलाकर जाति की अवहेलना करते हैं । आप १४ साल अजमेर में रहे । फिर मडवार, बीकानेर आदि में फिरते 'हुये १६५३ में नराने में रम गये। वहां से तीन चार कोस पर भराने • , " की पहाड़ी है, जहां जाया आया करते थे और वहीं शरीर छोड़ा ।