पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/४९५

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खान खाना अब्दुलरहीम ૨૩ कहते हैं कि इन का अभिप्राय जानकर रीवा नरेशने उपर्युक्त दान कर दिया था । शिया मुस्लिम होकर भी आप भगवान की भक्ति हिन्दुवों की भाँति करते थे; यथा, तैं रहीम मन आपनो कीन्हों चार, चकोर । निसि बासर लागो रहे कृष्ण चन्द्र की ओर ॥ जब एक बार महाराणा प्रतापसिंहने अकबर को आत्म समर्पण का विचार किया था, तब रहीम ने निम्न उपदेश गुप्तरूपेण उन्हें भेजा था 11 आय रहमी, रहमीधरा, खिसि जासी खर प्राण | अर्थ, हे राणा ! विश्वंभर के उपर अपना विश्वास अमर रक्खो, जिस से पृथ्वी और धर्म दोनों रहेंगे तथा शत्रू की खरी शान शिथिल हो जायगी। ऐसा ही हुवा भी । रहीम की दोहा सप्तशती सुनी जाती है, जिसके अब केवल ढाई तीनसो दोहे प्राप्त है । यरवै छन्द आपको बहुत प्रिय था और उसमें रचना भी आप की बहुत हुई है। कई अन्य छन्द भी आपके है। हिन्दी और फारसी के मिलित छन्द भी आपने रचे । कहते हैं कि रहीम ने कभी क्रोध नहीं किया। प्रसिद्ध गंग कवि पर आपकी विशेष कृपा रहती थी। कहते हैं कि आपने उन्हें एक बार एक ही अंक पर ३६ लाख रुपयों का दान दिया था । रहीम मन्साई, बरवै नायिकाचंद, रास पंचाध्यायी, मदनाष्टक, दीवान फ़ारसी और वाकयात बाबरी का फारसी अनुवाद आपके रचित ग्रन्थ थे । हिन्दू देवतावों पर इन की अच्छी श्रद्धा थी तथा आप परमोच्च मानसयुक्त थे । निम्नांकित छन्दो से इन की महत्ता भी प्रकट होगी:- । वे रहीमनर धन्य है पर उपकारी अंग । बांटनवारे को लगै ज्यो मेहँदी कोरंग ॥ खीनमतिन विष भैया अवगुन तीन । पियकह चन्द बदनिया अतिमति नि