पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/८२

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२४ परमार्थसोपान [ Part I Ch. 1 12. ON THE EVIL PROCESS OF METEMPSYCHOSIS. दिवाने मन, भजन विना दुख पैहौ || 2 || । पहिला जनम भूत का पै हौं, सात जनम पछितै हौ काँटा पर का पानी पैहौ, प्यासन ही मरि जैहौ ॥ १॥ दूजा जनम सुवा का पैहौ, बाग वसेरा लैहौ । टूटे पंख बाज मँडराने, अधफड़ प्रान वह ॥ २ ॥ . बाजीगर के वानर होड़ हौ, लकड़िन नाच नचैहौ । ऊँच नीच से हाथ पसरि हौ, माँगे भीख न पैहौ ॥ ३ ॥ तेली के घर चैला होइहौ, आँखिन ढाँपि ढहौं । कोस पचास घरै माँ चलिहौं, बाहर होन न हौ ॥ ४ ॥ पंचवा जनम ऊँट का पैहौ, बिन तोलन बोझ लदैहौं । बैठे से तो उठन न हौ, खुरच खुरच मरि जैहौ ॥ ५ ॥ धोवी के घर गढ़हा होइहौ, कटी घास नहिं पैहौ । लादी लादि आपु चढ़ि बैठे, लै घाटे पहुँचे हौ 11 & 11 पंछिन माँ तो कौवा होइहौं, करर करर गुहरै हौ । उड़ि के जाय बैठि मैले थल, गहिरे चोंच लगैहौ ॥७॥ सत्तनाम की हेर न करिहौ, मन ही मन पछितैहौ । कहैं कबीर सुनो भइ साधो, नरक नसेनी पैहौ || < ||