को पैदा होते ही मार डालने की प्रथा से जो बहुत-से जांगलियों में प्रचलित है उसका कोई सम्बन्ध अवश्य हो सकता है। इस प्रथा के फलस्वरूप हर क़बीले में पुरुषों की बहुतायत हो जाती थी और एक पर कई-कई पुरुषों का सम्मिलित अधिकार, यानी बहु-पति प्रथा इसका ज़रूरी तथा तात्कालिक परिणाम थी। फिर इसका परिणाम यह होता था कि बच्चे की माता का तो पता रहता था, पर कोई नहीं कह सकता था कि उसका पिता कौन है। इसलिये पुरुप-परम्परा को छोड़कर स्त्री-परम्परा से ही वंश चलता था। यह थी मातृ-सत्ता। कबीले के अन्दर औरतो की कमी का, जो बहु-पति प्रथा से केवल कुछ कम होती थी, पर पूरी तरह दूर नहीं होती थी, एक और नतीजा ठीक यही होता था कि दूसरे कबीलों की स्त्रियों का ज़बर्दस्ती अपहरण किया जाता था। "चूकि बहिर्विवाह प्रथा तथा बहु-पति प्रथा का जन्म एक कारण से, यानी स्त्रियों और पुरुषों की संख्या का संतुलन ठीक न होने के कारण से हुआ, इसलिये हमें मजबूर होकर इस नतीजे पर पहुंचना पड़ता है कि सभी बहिर्वियाही जातियों में शुरू में बहु-पति प्रया का चलन था.. इसलिये हमें इस बात को निर्विवाद रूप से मानना चाहिये कि बहिर्विवाही जातियों में रक्त-सम्बन्ध की पहली व्यवस्था वह थी जो केवल माताओं के जरिये होनेवाले रक्त-सम्बन्ध को मानती थी।" (मैक-लेनन, 'प्राचीन इतिहास का अध्ययन', 'आदिम विवाह', पृष्ठ १२४)। मैक-लेनन की तारीफ इसमें है, कि उन्होंने उस चीज के बड़े महत्त्व और व्यापक प्रचलन की ओर ध्यान आकृष्ट किया जिसे उन्होने बहिर्विवाह प्रथा का नाम दिया था। परन्तु वहिर्विवाही समूहो के अस्तित्व का पता उन्होने नही लगाया था; और यह कहना तो और बड़ी गलती होगी कि उन्होंने उनको समझा था। पहले के उन बहुत-से पर्यवेक्षकों के अलावा, जिनके अलग-अलग विवरणों ने मैक-लेनन के लिये सामग्री का काम दिया था, लेथम ने ( १८५६ मे प्रकाशित 'वर्णनात्मक मानवजाति विज्ञान' में ) भारत के मगरो में यह प्रथा जिस रूप में थी उसका ठीक-ठीक और बिलकुल सही वर्णन किया था और कहा था कि यह प्रथा संसार के सभी भागों में मौजूद थी और उसका आम तौर पर चलन था। खुद मैक-लेनन ने उनकी पुस्तक के इस अंश को उद्धृत किया है। और हमारे मोर्गन भी, १८४७ में . १८८६, 6 2. १६