राज्य चंकि वर्ग-विरोध पर अंकुश रखने के लिये पैदा हुआ था और साथ ही चूकि वह इन वर्गों के संघर्ष के बीच पैदा हुआ था, इसलिये वह निरपवाद रूप से सबसे अधिक शक्तिशाली, आर्थिक क्षेत्र में प्रभुत्वशील वर्ग का राज्य होता है। यह वर्ग राज्य के ज़रिये, राजनीतिक क्षेत्र मे भी प्रभुत्वशील हो जाता है और इस प्रकार उसे उत्पीडित वर्ग को दवाकर रखने तथा उसका शोषण करने के लिये नया साधन मिल जाता है। इस प्रकार प्राचीन काल का राज्य सर्वोपरि दास-स्वामियो का राज्य था जिसका उद्देश्य दासो को दवाकर रखना था, इसी प्रकार, सामन्ती राज्य अभिजात वर्ग का निकाय था, जिसका उद्देश्य भूदास किसानो तथा बंधुओ को दबाकर रखना था और आधुनिक प्रातिनिधिक राज्य पूंजी द्वारा उजरती श्रम के शोषण का साधन है। परन्तु अपवादस्वरूप कुछ ऐसे काल भी आते है जब संघर्षरत वर्गों का शक्ति-संतुलन इतना बराबर हो जाता है कि राज्य- सत्ता एक दिखावटी पंच के रूप में, उस समय के लिए, कुछ मात्रा में दोनों वर्गो से स्वतंत्र हो जाती है। सत्रहवी और अठारहवी सदियो का निरंकुश राजतंत्र ऐसा ही था, जो अभिजात वर्ग तथा बर्गर वर्ग के बीच संतुलन कायम रखता था। पहले की , और उससे भी अधिक दूसरे फ्रांसीसी साम्राज्य की बोनापातशाही भी ऐसी ही थी, जो सर्वहारा और पूजीपति वर्ग के बीच वन्दर-बाट का खेल खेलती रहती थी। इस प्रकार का सबसे नया उदाहरण , जिममें शासक और शासित समान रूप से हास्यास्पद नज़र माते हैं , बिस्मार्क के राष्ट्र का नया जर्मन साम्राज्य है। यहा पूजीपतियों और मजदूरो के बीच संतुलन रखा जाता है और दोनो को समान रूप से धोखा देकर प्रशा के दिवालिया जमीदारों का उल्लू सीधा किया जाता है। इसके अलावा, इतिहास में अभी तक जितने राज्य हुए है, उनमे से अधिकतर में नागरिकों को उनकी दौलत के अनुसार कम या ज्यादा अधिकार दिये गये है, जिससे यह बात सीधी तौर पर जाहिर हो जाती है कि राज्य मिल्की वर्ग का एक संगठन है जिसका मकसद गैर-मिल्की वर्ग से उसकी हिफाजत करना है। एथेंस और रोम में ऐसा ही था, जहा नागरिकों का वर्गीकरण मिल्कीयत के अनुसार किया जाता था। मध्ययुगीन सामन्ती राज्य में भी यही हालत थी जहां जिसके पास जितनी जमीन होती थी, उसके हाय मे उतनी ही राजनीतिक ताकत होती थी। माधुनिक प्रतिनिधियुक्त राज्यों में जो मताधिकार-ग्रहंता पायो जाती है, उसमें भी यह बात माफ २२१
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