पृष्ठ:परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति.djvu/२२५

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जो प्रकृति के लिये सत्य है, वही समाज के लिये भी सत्य है। किसी मामाजिक त्रिया पर, या सामाजिक क्रियाओं के किसी क्रम पर मनुष्यों का सचेत नियन्त्रण रखना जितना ही अधिक कठिन बनता जाता है, जितनी ही ये क्रियायें मनुष्यों के नियंत्रण के बाहर निकलती जाती है, उतना ही अधिक यह मालूम पड़ता है कि ये क्रियायें केवल संयोगवश घटित होती हैं और उतना ही अधिक इनमे निहित विशिष्ट नियम इस संयोग के रूप में प्रकट होते है, मानो ये क्रियायें स्वाभाविक आवश्यकता के कारण हो रही हो। माल-उत्पादन तथा विनिमय मे जो सायोगिकता दिखायी देती है, वह भी ऐसे ही नियमो के अधीन है। अलग-अलग उत्पादको और विनिमय कर्ताओं को ये नियम एक विचित्र , और प्रारम्भ मे अज्ञात शक्ति मालूम पड़ते है, जिसकी असलियत का पता लगाने के लिए पहले बड़ी मेहनत के साथ खोज और छानबीन करना आवश्यक होता है। माल-उत्पादन के पार्थिक नियम , उत्पादन के इस रूप के विकास की प्रत्येक अवस्था मे थोड़ा बहुत बदल जाते है। लेकिन मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि सभ्यता के पूरे युग मे ये नियम हावी रहे है। आज भी उपज उत्पादक के ऊपर हावी है ; आज भी समाज का कुल उत्पादन किसी ऐसी योजना के अनुसार नहीं होता जिसे सामूहिक रूप से सोच-विचार कर तैयार किया गया हो, बल्कि वह अंधे नियमों द्वारा नियमित होता है जो प्राकृतिक गक्तियों की तरह काम करते है और अन्त में जाकर समय-समय पर प्राने- वाले व्यापारिक संकटो के तूफ़ानों के रूप मे प्रगट होते है । हम ऊपर देख चुके है कि किस प्रकार उत्पादन के विकास की अपेक्षाकृत पारम्भ को ही एक अवस्था में मानव श्रम-शक्ति इस योग्य बन गयी थी कि उत्पादक के जीवन-निर्वाह के लिए जितना जरूरी था, उससे काफ़ी यादा पैदा कर सके, और किस प्रकार, प्रधानतया इसी अवस्था में, श्रम-विभाजन पौर मलग-अलग व्यक्तियों के बीच विनिमय समाज मे पहली यार प्रगट हमा था। मस्तु इसके कुछ ही समय के बाद इस महान् "सत्य" का भी भाविष्कार हो गया कि स्वयं मनुष्य भी विकाऊ मात हो सकता है, मनुष्य को दास बनाकर मानव-शक्ति का भी विनिमय और उपयोग किया जा साता है। मनुष्यों ने विनिमय करना प्रारम्भ ही किया था कि खुद उनका भी विनिमय होना शुरू हो गया। इंमान ने यह चाहा हो या न चाहा हो, पर हमा यही कि जो पहते साधक या वह अब साधन बन गया। 11-410 २२५