अब हम एक ऐसी सामाजिक क्रांति की ओर अग्रसर हो रहे है जिसके परिणामस्वरूप एकनिष्ठ विवाह का वर्तमान आर्थिक आधार उतने ही निश्चित रूप से मिट जायेगा, जितने निश्चित रूप से एकनिष्ठ विवाह की पूरक, वेश्यावृत्ति का आर्थिक आधार मिट जायेगा। एकनिष्ठ विवाह की प्रथा एक व्यक्ति के -और वह भी एक पुरुष के-हाथो मे बहुत-सा धन एकत्रित हो जाने के कारण, और उसकी इस इच्छा के फलस्वरूप उत्पन्न हुई थी कि वह यह धन किसी दूसरे को मन्तान के लिये नही, केवल अपनी सन्तान के लिये छोड़ जाये। इस उद्देश्य के लिये आवश्यक था कि स्त्री एकनिष्ठ रहे, परन्तु पुरुप के लिये यह आवश्यक नही था। इसलिये नारी की एकनिष्ठता से पुरुष के खुले या छिपे बहुपत्नीत्व मे कोई वाधा नही पड़ती थी। परंतु आनेवाली सामाजिक क्रांति स्थायी दायाद्य धन-सम्पदा के अधिकतर भाग को-यानी उत्पादन के साधनों को-सामाजिक सम्पत्ति बना देगी और ऐसा करके अपनी सम्पत्ति को बच्चों के लिये छोड़ जाने की इस सारी चिन्ता को अल्पतम कर देगी। पर एकनिष्ठ विवाह चूकि आर्थिक कारणो से उत्पन्न हुआ था, इसलिये क्या इन कारणों के मिट जाने पर वह भी मिट जायेगा? इस प्रश्न का यदि कोई यह उत्तर दे तो वह शायद गलत न होगा: मिटना तो दूर, एकनिष्ठ विवाह तभी पूर्णता प्राप्त करने की ओर बढेगा। कारण कि उत्पादन के साधनों के सामाजिक सम्पत्ति मे रूपान्तरण के फलस्वरूप उजरती श्रम, सर्वहारा वर्ग भी मिट जायेगा, और उसके साथ- साथ यह आवश्यकता भी जाती रहेगी कि एक निश्चित संख्या में-जिस संख्या को हिसाब लगाकर बताया जा सकता है- स्त्रिया पैसे लेकर अपनी देह को पुरुषो के हाथो मे सौप दें। तब वेश्यावृत्ति का अन्त हो जायेगा, और एकनिष्ठ विवाह-सम्बन्ध मिटने के बजाय, पहली बार वास्तविकता बन जायेगा -- पुरषो के लिये भी बन जायेगा। बहरहाल , तव पुरषों की स्थिति में बहुत बड़ा परिवर्तन हो जायेगा। परन्तु स्त्रियों की, सभी स्त्रियों की स्थिति में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होगा। उत्पादन के साधनों के समाज की सम्पत्ति बन जाने से वैयक्तिक परिवार समाज की आर्थिक इकाई नही रह जायेगा। घर का निजी प्रबंध सामाजिक उद्योग-धंधा बन जायेगा। बच्चों का लालन-पालन और एक सार्वजनिक विषय हो जायेगा। समाज सब बच्चो का समान ६५
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