पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/१०९

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पत्रव्यवहार
 


"ज्योतिष से बढ़ कर होनहार जानने का कोई सुगम मार्ग नहीं है” पंडित पुरुषोत्तमदास ने लाला मदनमोहन को कुछ उदास देख कर अपना मतलब गांठने के लिये कहा. वह जानता था कि निर्बल चित के मनुष्य सुख में किसी बात की ग़र्ज़ नहीं रखते परन्तु घबराट के समय हर तरफ़ को सहारा ताकते फिरते हैं.

"विद्या का प्रकाश प्रतिदिन फैलता जाता है इस लिये अब आपकी बात में कोई नहीं आवेगा” मास्टर शिंभूदयाल ने कहा.

"यह तो आजकल के सुधरे हुओं की बात है परंतु वे लोग जिस विद्या का नाम नहीं जानते उसमें उनकी बात कैसे प्रमाण हो?” पंडितजी ने जवाब दिया.

“अच्छा! आप करेले के सिवाय और क्या जानते हैं? आपको मालूम है कि नई तहकीकात करने वालों ने कैसी-कैसी दूरबीनें बनाकर ग्रहों का हाल निश्चय किया है?” मास्टर शिंभूदयाल बोले.

"किया होगा, परंतु हमारे पुरुखों नें भी इस विषय में कुछ कसर नहीं रखी" पंडित पुरुषोत्तमदास कहनें लगे. “इस समय के विद्वानों ने बड़ा खर्च करके जो कहें ग्रहों का वृतान्त निश्चय करने के लिये बनाई हैं हमारे बड़ोंने छोटी-छोटी नालियों और बांस की छड़ियों के द्वारा उनसे बढकर काम निकाला था. संस्कृत की बहुत-सी पुस्तकें नष्ट हो गई, योगाभ्यास आदि विद्याओं का खोज नहीं रहा परंतु फिर भी जो पुस्तकें अब मौजूद हैं उन्हें ढूंँढने वालों के लिये कुछ थोड़ा खज़ाना नहीं है. हां आप की तरह कोई कुछ ढूँढभाल करे बिना दूर ही से 'कुछ नहीं' 'कुछ नहीं’ कहकर बात उड़ा दे तो यह जुदी बात है."