पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/१४७

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स्वतन्त्रता.
 

बिदुरजी कहते हैं कि "जाहि सराहत हैं सब ज्वारी। जाहि सराहत चंचल नारी॥ जाहि सराहत भाट वृथा ही। मानहु सो नर जीवत नाही॥‡[१] लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया.

"मैं अच्छा हुं या बुरा हूँ आपका क्या लेता हूं? आप क्यों हात धोकर मेरे पीछे पड़े हैं? आपको मेरी रीति भांति अच्छी नहीं लगती तो आप मेरे पास न आंय" लाला मदनमोहन नें बिगड़ कर कहा.

"मैं आपका शत्रु नहीं; मित्र हूं परन्तु आपको ऐसा ही जचता है तो अब मैं भी आपको अधिक परिश्रम नहीं दिया चाहता मेरी इतनी ही लालसा है कि आपके बड़ों की बदौलत मैंने जो कुछ पाया है वह मैं आपकी भेट करता जाऊं" लाला ब्रजकिशोर लायक़ी सै कहनें लगे "मैंनें आपके बड़ोंकी कृपा सै बिद्या धन पाया है जिस्का बड़ा हिस्सा मैं आपके सन्मुख रख चुका तथापि जो कुछ बाकी रहा है उस्को आप कृपा करके और अंगीकार कर लें. मैं चाहता हूं कि मुझसै आप भले ही अप्रसन्न रहें मुझको हरगिज़ अपनें पास न रक्खें परन्तु आपका मंगल हो. यदि इस बिगाड़ सै आपका कुछ मंगल होता हो तो मैं इस ईश्वर की कृपा समझूंगा. आप मेरे दोषोंकी ओर दृष्टि न दें मेरी थोथी बातों मैं जो कुछ गुण निकलता हो उसे ग्रहण करें. हज़रत सादी कहते हैं "भींत लिख्यो उपदेशजु कोऊ॥ सादर ग्रहण कीजिये सोऊ॥+[२]" इसे लिये आप स्वपक्ष और विपक्ष का


  1. ‡ यं प्रशंसन्ति कितंवः यं प्रशंसन्ति चारणाः॥
    यं प्रशंसन्ति बन्धक्यो न सजीवति मानवः॥

  2. + मर्द्र बायद कि गीरद अन्दरगोश॥
    बर नबिश्तस्द पन्दबर दीवार