प्रकरण २०
कृतज्ञता.
तृणहु उतारे जनगनत कोटि मुहर उपकार
प्राण दियेहू दुष्टजन करत बैर व्यवहार॥ +[१]
भोजप्रबंधसार.
लाला ब्रजकिशोर मदनमोहन के पास सै उठकर घर को जानें लगे उस्समय उन्का मन मदनमोहन की दशा देखकर दुःख सै बिबस हुआ जाता था वह बारम्बार सोचते थे कि मदनमोहन नें केवल अपना ही नुक्सान नहीं किया. अपने बाल बच्चों का हक़ भी डबो दिया मदनमोहन नें केवल अपनी पूंजी ही नहीं खोई अपनें ऊपर क़र्ज़ भी कर लिया.
भला! लाला मदनमोहनको क़र्ज़ करनें की क्या ज़रूरत थी? जो यह पहलै ही सै प्रबंध करनें की रीति जान्कर तत्काल अपनें आमद ख़र्च का बंदोबस्त कर लेते को इन्को क्या? इन्के बेटे पोतों को भी तंगी उठाने की कुछ ज़रूरत न थी. मैं आप तकलीफ़ सै रहनें को, निर्लज्जता सै रहनें को, बदइन्तज़ामी सै रहनें को, अथवा किसी हक़दार के हक़ मैं कमी करनें को पसंद नहीं करता, परंतु इन्को तो इन बातों के लिये उद्योग करनें की भी कुछ ज़रूरत न थी यह तो अपनी आमदनी का बंदोबस्त
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+ सन्त स्तृ णोत्तारणमृतमांगात् सुवर्णकोट्यर्पणभां मनन्ति॥
प्राणव्ययेनापि कृतोपकाराः खलाः परम्बैरमिवोदहन्ति॥