पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/१७३

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संशय.
 

होती मैं ठेठ सै जिस्तरह मदन मोहन को चाहता था, जिस तरह तुमको चाहता था, जिस्तरह तुम दोनों की परस्पर प्रीति चाहता था उसी तरह अब भी चाहता हूं परन्तु तुम्हारी तवियत ठिकानें नहीं है इस्सै तुम को बारबार मेरी चाल पर सन्देह होता है सो ख़ैर! मुझै तो चाहै जैसा समझते रहो परन्तु मदनमोहन के साथ बैर भाव मत रक्खो तुच्छ बातों पर कलह करना अनुचित है और बैरी सै भी बैर बढ़ानें के बदले उस्के अपराध क्षमा करनें मैं बड़ाई मिल्ती है."

जी हां! पृथ्वीराज नें शहाबुद्दीन ग़ोरीको क्षमा करके जैसी बड़ाई पाई थी वह सब को प्रगट है" हरकिशोर ने कहा.

"आगे की हानि का सन्देह मिटे पीछे पहले के अपराध क्षमा करनें चाहियें परन्तु पृथ्वीराज नें ऐसा नहीं किया था इसी सै धोका खाया और—"

"बस, बस यहीं रहने दीजिये. मेरा मतलब निकल आया आप अपनें मुख से ऐसी दशा मैं क्षमा करना अनुचित बता चुके उस्सै आगै सुन्कर मैं क्या करूंगा?" यह कह कर हरकिशोर, ब्रजकिशोर के बुलाते, बुलाते उठ कर चला गया.

और ब्रजकिशोर भी इनही बातों के सोच बिचार मैं वहां सै उठ कर पलंगपर जा लेटे.