पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/२५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परीक्षागुरु.
२४०
 

मुकद्दमों मैं अच्छी जवाब दिही करैं. मैं इन्के पास रहकर देख चुका हूं कि यह अपनें मुख सै तो कुछ नहीं कहते परन्तु इन्के साथ जो जितना उपकार करता है यह उस्सै बढ़कर उस्का काम कर देते हैं"

"अच्छा! तो आज शाम को कोई क़ीमती चीज़ इन्के महन्तानें मैं दे देंगे और काम अच्छा किया तो शुक्राना जुदा देंगे" लाला मदनमोहनने कहा.

इतनें मैं डाक आई उस्मैं एक रजिस्ट्री चिट्ठी मेरठसै एक मित्रकी आई थी जिस्मैं दस हज़ार की दर्शनी हुंडी निकली और यह लिखा था कि "जितनें रुपे चाहिये और मंगा लेना. आपका घर है" लाला मदनमोहन यह चिट्ठी देखते ही उछल पडे और अपनें मित्रों की बड़ाई करनें लगे. हुंडी तत्काल सकरानें को भेज दी परन्तु जिस्के नाम हुंडी थी उस्नें यह कहकर हुंडी सिकारनें से इन्कार किया कि जिस साहूकार के हां सै लाला मदनमोहनके पास हुंडी आई है उसीनें तार देकर मुझको हुंडी सिकारनें की मनाई की है इस्सै सब भेद खुल गया. असल बात यह थी कि जिस्समय मदनमोहन की चिट्ठी उस्के पास पहुंची उस्को मदनमोहनके बिगडने का जरा भी संदेह न था इसलिये मदनमोहन की चिट्ठी पहुंचते ही उस्नें सञ्ची प्रीति दिखानें के लिये दस हज़ार की हुंडी खामदी परन्तु पीछेसै और लोगोंकी जबानी मदनमोहन के बिगड़ने का हाल सुन्कर घबराया और तत्काल तार देकर हुडी खड़ी रखवादी.

लाला मदनमोहन इस तरह अपने एक मित्रके छलसै निराश होकर तीसरे पहर अपनें शहरके मित्रोंसै सहायता मांगनें के