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परीक्षागुरु.
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गांव साठ हज़ार रुपे मैं खरीद लिया है मेरे पास इस्समय पचास हज़ार अन्दाज मोजूद हैं इसलिये मुझको महीने’ डेढ़ महीनें के वास्ते दस हज़ार रुपये की ज़रूरत होगी जो आप कृपा करके यह रुपया मुझको साहूकारी व्याजपर दे दैंगे तो मैं आपका बहुत उपकार मानूंगा” यह चिट्ठी लाला मदनमोहन की चिट्ठी पहुंचते ही उस्नें अगमचेती करके लिख दी थी और मिती एक दिन पहलेकी डाल दी थी कि जिस्सै भेद न खुलने पावै―

मदनमोहन के तीसरे मित्र की चिट्ठी बहुत संक्षेप थी उस्में लिखा था कि “आपकी चिट्ठी पहुंची उस्के पढ़नें सै बड़ा खेद हुआ. मैं रुपे का प्रबन्ध कर रहा हूं यदि हो सकेगा तो कुछ दिन मैं आपके पास अवश्य भेजूंंगा” इस्के पास पत्र भेजनें के समय रुपया मोजूद था परन्तु इस्नें यह पेच रक्खा था मदनमोहन का काम बना रहैगा तो पीछे सै उस्के पास रुपया भेज कर मुफ्तमें अहसान करेंगे और काम बिगड जाया तो चुप हो रहैगे अर्थात् उस्को रुपे की ज़रूरत होगी तो कुछ न देंगे और ज़रूरत न होगी तो ज़बरदस्ती गले पडेंगे!

इन्के पीछे लाला मदनमोहन एक अख़बार खोलकर देखनें लगे तो उस्मैं एक यह लेख दृष्टि आयाः―

"सुंंसभ्यता का फल"

“हमारे शहरके एक जवान सुशिक्षित रईसकी पहली उठान देखकर हमको यह आशा होती थी बल्कि हमनें अपनी यह आशा प्रगट भी कर दी थी कि कुछ दिनमैं उस्के कामोंसै कोई. देशोपकारी बात अवश्य दिखाई देगी परन्तु खेद है कि हमारी वह आशा बिल्कुल नष्ट हो गई बल्कि उस्के विपरीत भाव प्रतीत होनें