पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/२८७

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सच्ची प्रीति.
 


तक देनें पड़ें तो मैं बहुत प्रसन्न हूं. हाय! वह कैद रहैं और मैं गहनें का लालच करू?, वह दुःख सहें और मैं चैन करू? हम लोगों की ज़बान नहीं है इस्सै क्यो हमारे हृदय भी प्रीति शून्य है क्या कहूं? इस्समय मेरे चित्त का जो दु:ख है वह मैं। ही जाती हूं. हे धरती माता! तू क्यों नहीं फटती जो मैं अभागी उस्मैं समा जांंऊ?" लाला मदनमोहन की स्त्री गद्गद स्वर और रुके हुए कण्ठ सै भीतर बैठी हुई बहुत धीरे, धीरे बोली! भाई! मैं तुमसै आज तक नहीं बोली थी परन्तु इस्समय दु:ख की मारी बोल्ती हूं सो मेरी ढिठाई क्षमा करना. मुझसैं यह दुःख नहीं सहा जाता मेरी छाती फटी जाती है मुझको इस्समय कुछ नहीं सूझता जो तुम अपनी बहन के और इन छोटे, छोटे बच्चों के प्राण बचाया चाहते हो तो यह गहना लो और हो सके जैसे इसी समय उन्को छुड़ा लाओ नहीं तो केवल मैं ही नहीं मरूंंगी मेरे पीछे ये छोटे, छोटे बालक भी झुर, झुर कर―”

"बहन! क्या इस्तमय तुम बावली होगई हो तुझै अपनें हानि लाभका कुछ भी विचार नहीं है?" लाला ब्रजकिशोर बाहर सै समझानें लगे “देखो शकुन्तला भी पतिव्रता थी परन्तु जब उस्के पतिनें उस्को झूंटा कलंक लगाकर परित्याग करनें का विचार किया तब उसै भी क्रोध आए बिना नहीं रहा. क्या तुम उस्सै भी बढ़कर हो जो अपनें छोटें, छोटे बच्चोंके दुःख का कुछ बिचार नहीं करतीं? थोड़ी देर धैर्य रक्खो धीरे, धीरे सब,होजायगा"

"भाई! धैर्य तो पहलैहीं बिदा होचुका अब मैं क्या करूंं? तुम बार, बार बाल बच्चों की याद दिवाते हो परन्तु मेरे जान