म्बार उसका निषेध किया है परंतु धर्मप्रवृत्ति और बुद्धि को
मुख्य माने पीछे उचित रीति से निकृष्प्रवृत्ति का आचरण किया
जाय तो गृहस्थ के लिये दूषित नहीं हो सकता .हाँ उसका नियम उल्लंघन कर किसी एक वृत्ति की प्रबलता से और वृत्तियों के विपरीत आचरण कर कोई दु:ख पावे तो इसमें किसी का बस नहीं. सब से मुख्य धर्म प्रवृत्ति है परंतु उसमें भी जबतक और वृत्तियों के हक की रक्षा न की जायेगी अनेक तरह के बिगाड़ होने की संभावना बनी रहेगी”
“मुझको आप की यह बात बिल्कुल अनोखी मालूम होती
है भला परोपकारादि शुभ कामों का परिणाम कैसे बुरा हो
सकता है?” पंडित पुरुषोत्तमदास ने कहा.
“जैसे अन्न प्राणधार है परंतु अति भोजन से रोग उत्पन्न होता है" लाला ब्रजकिशोर कहने लगे "देखिये परोपकार की इच्छा ही अत्यंत उपकारी है परंतु हद से आगे बढ़ने पर वह भी फिजूलखर्ची समझी जायगी और अपने कुटुंब परिवार आदि का सुख नष्ट हो जायगा जो आलसी अथवा अधर्मियों की सहायता की तो उससे संसार में आलस्य और पाप की वृद्धि होगी इसी तरह कुपात्र में भक्ति होने से लोक, परलोक दोनों नष्ट हो जाएँगे,न्यायपरता यद्यपि सब वृत्तियों को समान रखने वाली है परंतु इसकी अधिकता से भी मनुष्य के स्वभाव में मिलनसारी नहीं रहती. क्षमा नहीं रहती. जब बुद्धि वृत्ति के कारण किसी वस्तु के विचार में मन अत्यंत लग जायेगा तो और जानने लायक पदाथों की अज्ञानता बनी रहेगी मन को अत्यंत परिश्रम होने से वह निर्बल हो जायेगा, और शरीर