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भले बुरे की पहचान
 


का परिश्रम बिल्कुल न होने के कारण शरीर भी बलहीन हो जायेगा. आनुसंगिक प्रवृत्ति के प्रबल होने से जैसा संग होगा वैसा रंग तुरन्त लग जाया करेगा, काम की प्रबलता से समय-असमय और स्वस्त्री परस्त्री आदि का कुछ बिचार न रहेगा. संतान स्नेह की वृत्ति बढ़ गई तो उसके लिये आप अधर्म करने लगेंगे, उसको लाड, प्यार में रखकर उसके लिये जुदे कांटे बोईयेगा, संग्रह करने की लालसा प्रबल हुई तो जोरी से, चोरी से, छल से, खुशामद से, कमाने की डिठ्या पडे़गी और खाने खर्चाने के नाम से जान निकल जायगी. जिज्ञासा वृत्ति प्रबल हुई तो छोटी-छोटी सी बातों पर अथवा खाली संदेह पर ही दूसरों का सत्यानाश करने की इच्छा होगी और दूसरे को दंड देते बार आप दंड योग्य बन जाएँगे. आत्म सुख की अभिरुचि हद्द के आगे बढ गई तो मन को परिश्रम के कामों से बचाने के लिये गाने बजाने की इच्छा होगी अथवा तरह,-तरह के खेल तमाशे हँसी चुहल की बातें, नशेबाजी, और खुशामद में मन लगेगा. द्रव्य के बल से बिना धर्म किये धर्मात्मा बनना चाहेंगे. दिन-रात बनाव श्रृंगार में लगे रहेंगे. अपनी मानसिक उन्नति करने के बदले उन्नति करने वालों से द्रोह करेंगे, अपनी झूठी जिद निबाहने में सब बड़ाई समझेंगे, अपने फायदे की बातों में औरों के हक का कुछ विचार न करेंगे. अपने काम निकालने के समय आप खुशामदी बन जायेंगे, द्रव्य की चाहना हुई तो उचित उपायों से पैदा करने के बदले हुआ, बदनी धरोहर रसायन या धरी ढकी दोलत ढूँढते फिरेंगे."