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परीक्षा गुरु
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फ़िजूलखर्च न था और किसी के साथ उपकार कर के प्रत्यु- पकार नहीं चाहता था बल्कि अपनी मानवरी की भी चाह न रखता था, वह किसी दरिद के मरने की खबर पाता तो उसकी क्रिया-कर्म के लिये तत्काल अपने पास से खर्च भेज देता, किसी दरिद्र को विपदग्रस्त देखता तो अपने पास से सहायता करके उसके दुख दूर करने का उपाय करता, पर कभी किसी मनुष्य को उसकी आवश्यकता से अधिक देकर आलसी और निरुद्यमी नहीं होने देता था. हां सब मनुष्यों की प्रकृति ऐसी नहीं हो सकती. बहुधा जिस मनुष्य के मन में जो वृत्ति प्रबल होती है वह उसको खींच-खांच कर अपनी ही राह पर ले जाती है जैसे एक मनुष्य जंगल में रुपयों की थैली पड़ी पावे और उस समय उसके आस-पास कोई न हो तब संग्रह करने की लालसा कहती है कि “इसे उठा लो" सन्तान स्नेह और आत्म सुख की अभिरुचि सम्मति देती है कि "इस काम से हमको भी सहायता मिलेगी” न्यायपरता कहती है कि "न अपनी प्रसन्नता से यह किसी ने हमको दी, न हमने परिश्रम कर के यह किसी से पाई फिर इसपर हमारा क्या हक है? और इस्का लेना चोरी से क्या कम है? इसे पर धन समझ कर छोड़ चलो".

परोपकार की इच्छा कहती है कि “केवल इसका छोड़ जाना उचित नहीं, जहां तक हो सके उचित रीति से इसको इसके मालिक के पास पहुंचाने का उपाय करो" अब इन वृत्तियों से जिस वृत्ति के अनुसार मनुष्य काम करे वह उसी मेल में गिना जाता है यदि धर्मप्रवृत्ति प्रबल रही तो वह मनुष्य अच्छा समझा जायगा और रीति से भले-बुरे मनुष्यों की परीक्षा समय पाकर अपने आप हो जाएगी बल्कि अपनी वृत्तियों को