पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/६३

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सबमें हां(!)
 

"खैर! यह बातें तो हुआ ही करेंगी मगर वह लखनऊ का तायफा शाम से हाज़िर है उसके वास्ते क्या हुक्म होता है?" हकीम अहमदहुसैन ने पूछा.

अच्छा! उसको बुलवाओ पर उसके गाने ने समा न बाँधा तो आप को वह शर्त पूरी करनी पड़ेगी" लाला मदन- मोहन ने मुस्कुराकर कहा.

इसपर लखनऊ का तायफ़ा मुजरे के लिये खड़ा हुआ और उसने मीठी आवाज़ से ताल सुर मिलाकर सोरठ गाना शुरू किया.

निस्संदेह उसका गाना अच्छा था परंतु पंडितजी अपनी अभिज्ञता जताने के लिये बे समझे बूझे लट्टू हुए जाते थे, समझने वालों का सिर मौके पर अपने आप हिल जाता है परंतु पंडितजी का सिर तो इस समय मतवालों की तरह घूम रहा था. मास्टर शिंभूदयाल को दोपहर का बदला लेने के लिये यह समय सब से अच्छा मिला, उसने पंडितजी को आसामी बनाने हेतु और लोगों से इशारों में सलाह कर ली और पंडितजीक का मन बढ़ाने के लिये पहले सब मिलकर गाने की वाह-वाह करने लगे अंत में एक ने कहा “क्या स्यामकल्याण है” दूसरे ने कहा "नहीं ईमन है" तीसरे ने कहा "वाह झंझौटी है” चौथा बोला “देस है” इसपर सुनारी लड़ाई होने लगी.

“पंडितजी को सब से अधिक आनंद आ रहा है इस लिये इनसे पूछना चाहिये" लाला मदनमोहन ने झगड़ा मिटाने के मिस से कहा.

“हां-हां पंडितजी ने दिन में अपनी विद्या के बल से बेदखे भाले करेला बता दिया था सो अब इस प्रत्यक्ष बात के बताने -