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परीक्षा गुरु
५८
 

“चलो चुप रहो देखें पंडितजी क्या कहते हैं” चुन्नीलाल ने धीरे से कहा.

“जो तुमको हमारी परीक्षा ही लेनी है तो लो, सुनो हलक एक चतुष्पद जंतु विशेष है और बिना पंखों के उड़ सकता है" पंडित जी ने सब को सुनाकर कहा.

"यह तो आप ने बहुत पहुँच कर कहा परंतु उसकी शक्ल बताइये” हकीम जी हुज्जत करने लगे.

“जो शक्ल ही देखनी हो तो यह रही” बाबू बैजनाथ ने मेंज पर से एक छोटा-सा कांच उठाकर पंडितजी के सामने कर दिया.

इसपर सब लोग खिल खिलाकर हंस पड़े.

“यह सब बातें तो आपने बता दीं परंतु इस राग का नाम न बताया" लाला मदनमोहन ने हँसी थमे पीछे कहा.

“इस समय मेरा चित्त ठिकाने नहीं है मुझको क्षमा करो” पंडित पुरुपोत्तमदास ने हार मान कर कहा.

"बस महाराज! आपको तो करेला ही करेला बताना आता है और कुछ भी नहीं आता" मास्टर शिंभूदयाल बोले.

“नहीं साहब! पंडितजी अपनी विद्यामें एक ही हैं. रेल और तार की हाल क्या ठीक-ठीक बताया है!” "और बैलून में तो आप ही उड चले!” “हुलक की सूरत भी तो आप ही में ने दिखाई थी!” "और सब से बढ़कर राग का रस भी तो इन्हीं ने लिया है” चारों तरफ लोग अपनी-अपनी कहने लगे. पंडित जी इन लोगों की बातें सुन-सुनकर लज्जा के मारे धरती में गढ़े चले जाते थे पर कुछ बोल नहीं सकते थे.