लगा। थोड़ी देर बाद उसी छेद पर एक लोहे का प्याला
रख दिया गया, जिसमें पानी भरा हुआ था। मैंने परमात्मा
को धन्यवाद देकर पानी उठाकर पिया। जब आत्मा कुछ
तृप्त हुई, तो कहा--थोड़ा पानी और चाहिए।
इस पर दीवार की उस ओर एक भीषण हँसी की प्रतिध्वनि सुनाई दी, और किसी ने खनखनाते हुए स्वर में कहा--पानी अब कल मिलेगा। प्याला दे दो, नहीं तो कल भी पानी नहीं मिलेगा।
क्या करता, हार कर प्याला वहीं पर रख दिया।
इसी प्रकार कई दिन बीत गए। नित्य दोनों समय चार रोटियाँ और एक प्याला पानी मिल जाता था। धीरे-धीरे मैं भी इस शुष्क जीवन का आदी हो गया। निर्जनता अब उतनी न खलती। कभी-कभी मैं अपनी भाषा में और कभी-कभी पश्तों में गाता। इससे मेरी तबीयत बहुत कुछ बहल जाती और हृदय भी शान्त हो जाता।
एक दिन रात्रि के समय मैं एक पश्तो गीत गा रहा था। मजनू मुलसानेवाले बगूलों से कह रहा था--तुममें क्या वह हरारत नहीं है, जो काफ़लों को जलाकर ख़ाक कर देती है। आखिर वह गरमी मुझे क्यों नहीं जलाती ? क्या इसलिये कि मेरे अन्दर खुद एक ज्वाला भरी हुई है ?