पृष्ठ:पाँच फूल.djvu/६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
जिहाद


होंगी; पर इस रक्त-रञ्जित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी। बेल-बूटोंवाली साड़ियाँ रूप की शोभा बढ़ाती थीं, यह रक्त-रञ्जित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी।

ऐसा जान पड़ा, मानो खज़ाँचन्द की बुझती आँखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान् हो गई हैं। उन नेत्रों में कितना सन्तोष, कितनी तृप्ति, कितनी उत्कण्ठा भरी हुई थी। जीवन में जिसने प्रेम की भिक्षा भी न पाई, वह मरने पर उत्सर्ग जैसे स्वर्गीय रत्न का स्वामी बना हुआ था।

धर्मदास ने श्यामा का हाथ पकड़कर कहा--श्यामा, होश में आओ, तुम्हारे सारे कपड़े ख़ून से तर हो गये हैं। अब रोने से क्या हासिल होगा ? ये लोग हमारे मित्र हैं, हमें कोई कष्ट न देंगे। हम फिर अपने घर चलेंगे और जीवन के सुख भोगेंगे।

श्यामा ने तिरस्कार-पूर्ण नेत्रों से देखकर कहा--तुम्हें अपना घर बहुत प्यारा है, तो जाओ। मेरी चिन्ता मत करो। मैं अब न जाऊँगी। हाँ, अगर अब भी मुझसे कुछ प्रेम हो, तो इन लोगों से इन्हीं तलवारों से मेरा भी अन्त करा दो।

५८