धर्मदास करुणा-कातर स्वर से बोला--श्यामा, यह तुम क्या कहती हो, तुम भूल गई कि हमसे-तुमसे क्या बातें हुई थीं ? मुझे ख़ुद ख़ज़ाँचन्द के मारे जाने का शोक है; पर भावी को कौन टाल सकता है ?
श्यामा--अगर यह भावी थी, तो यह भी भावी है कि मैं अपना अधम जीवन उस पवित्र आत्मा के शोक में काटूँ, जिसका मैंने सदैव निरादर किया।
यह कहते-कहते श्यामा का शोकोद्गार, जो अब तक क्रोध और घृणा के नीचे दबा हुआ था, उबल पड़ा और वह ख़ज़ाँचन्द के निस्पन्द हाथों को अपने गले में डालकर रोने लगी।
चारों पठान यह अलौकिक अनुराग और आत्म-समर्पण देखकर करुणार्द्र हो गये। सरदार ने धर्मदास से कहा--तुम इस पाकीज़ा ख़ातून से कहो, हमारे साथ चले। हमारी ज़ात से इसे कोई तकलीफ़ न होगी। हम इसकी दिल से इज्ज़त करेंगे।
धर्मदास के हृदय में ईर्ष्या की आग धधक रही थी। वही रमणी, जिसे वह अपनी समझे बैठा था, इस वक्त उसका मुँह भी नहीं देखना चाहती थी। बोला--श्यामा,
तुम चाहे इस लाश पर आँसुओं की नदी बहा दो; पर यह