पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/१०२

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चतुरसेन की कहानियाँ से उठकर बाहर को जाने की चेष्टा करने लगी। डॉक्टर जीने हाथ पकड़ कर कहा-वटी । डर क्या है, घबराने की बात इतना कह वे उसे कनास्त्रियों से देखने लगे। बालिका सिकुड़ कर बैठ गई और उनकी बात की प्रतीक्षा करने लगी। डॉक्टर जी ने कहा--'तुम्हारा नाम क्या है ? "चन्दन! "बहुत मुन्दर नाम है। अच्छा यह तो बताओ-तुम्हारे मन में कभी किसी तरह की उमङ्ग तो नहीं उठती?" बालिका समझो नहीं । वह बड़ी-बड़ी आँखें उठा कर डॉक्टर जी की और देखने लगो। “आह ! समझी नहीं, ( कन्धे पर हाथ धरकर और पास खसक कर ) अभी नादान बञ्ची हो। मन के भाव समझती नहीं। खैर देखो, तुम चाहो तो यहाँ आश्रम में रहो, चाहे कभी- कभी आया करो। कुछ रुपए-पैसे को जरूरत हो तो मुझसे कहो। देखो, भेद-भाव मत रखना । अब मै तुम्हारा रक्षक हुश्रा। क्यों, हुलाउन ? बोलो बालिका बिना हाथ पैर हिलाए चुपचाप बैठो रही। उसके बदन पर पसीना आ रहा था। डॉक्टर जी ने उसकी कमर में हाथ डालकर अपनो ओर खींचते हुए कहा-जवाब तो दो! बालिका ने तिनक कर कहा-अाह ! यह क्या करते हैं, अपना हाथ खींच लीजिए। "कोष मत करो। जब मैं रक्षक हुआ तो जो पूछूगा बताना पड़ेगा, जो कहूँगा करना पड़ेगा, किसी बात में उज्र न करना