पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/१०९

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विधवाश्रम "दूर नहीं, करनाल के पास एक कस्वे में।" "हे ईश्वर, वहाँ मेरा दिल कैसे लगेगा?' दिल की एकही कही दस-पन्द्रह दिन नहीं काट सकती हो। "भाल-मलीदे तो खूब मिलेगे ?" << "और वह उल्लू ।' "बह एक बृढा खूसट है, .खूब बनाना " "कुछ झगड़ा-बखेड़ा तो खड़ा न होगा ?" "झगड़ा क्या होगा! "खैर, मुझे क्या मिलेगा, "सैर-सपाटा, माल-टाज और बढ़िया साड़ी, जूना माना और तीन-चार अदद नए गहने !" "और रुपए ? रुपए इससे न जमा कराए जावंगे?" "पाँचसौ तो बँी बात है, उसका क्या कह्ना ।” "पर इस बार सब रुपए मैं लूंगी।" "यह कैसे हो सकता है, पहले की भाँति अद्धम-श्रद्धा पर सौदा होगा " "अच्छी बात है, मुझे मंजूर है !" "तब नहा-धोकर सिंगार-फ्टार कर लो। उल्लू को सामान का पर्चा उतरवा दिया है, लेकर आता ही होगा। साड़ी तुम स्वयं पसन्द कर लेना उपरोक्त बात-चीत विधवाश्रम की अधिष्ठात्री देवी और एक युवती में हो रही थी। बात-चीत करके अधिष्ठात्री जी चली गई और युवती कुछ सोचकर हँस पड़ी! उसने उँगली पर गिन कर आप ही कहा---एकदो-तीन ! यह तीसरा उल्लू है। इसमें