पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/११२

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चतुरसेम की कहानियाँ "चाकी सत्र काम मैं स्वयं कर लूंगा।" "बहुत अच्छा" "यर, आज xxx" "चलो हटो, आज मेरी शादी है, ऐसी बातें न करो। "अच्छा देखा जायगा।"-यह कह कर दुष्टतापूर्ण सङ्केत करके वह चला गया। पू महाशय जी, पाँच सौ रुपए तो मैं जमा कर चुका, अव के दो सौ किस लिए माँगे जाले हैं ?" "महाशय जी, के पाँच सौ रुपए तो स्त्री-धन है। यदि तुम से त्याग दो, उस पर जुल्म करो, उसे दगा दो तो वह क्या खाएगी, वह तो कहीं की न रही न; इसका तुम्हें अभी इकरार- नामा लिखना पड़ेगा " "खैर, वह मैं लिख दूंगा, कहीं घर-गृहस्थ में ऐसा भी होता है ? महाशय जी, मैं गृहस्थ आदमी हूँ, लुच्चा-लुङ्गाड़ा "तभी ऐसी देवी आपको दी गई है, दुनिया में चिराग जला कर भी देखोगे तो ऐसी लड़की न मिलेगी। "यह आपकी मेहरबानी है।" "तब लीजिए, यह रहा इकरारनामा-दस्तखत कीजिए। आओ जी तुम बलवन्त, गवाही कर दो। एक गवाही और चाहिए । अधिष्ठात्री देवी जी को बुला लो, वे कर देंगी। हाँ, चे दो सौ