पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/११७

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विधवाश्रम "समझा गया, इस ढङ्ग से श्राप उस लड़की पर अधिकार करना चाहते हैं। नगर वह नीकर शादी होने पर आपके हो क्यों लड़की को चढ़ने देगा ?" "वह बाट रुपए माहबार पाता है। इससे हमन्हे अचान तय कर लिया है कि लड़की पर उसे कोई दखल नहीं होगा। इकरारनामा भी लिवा लिया है कि इसकी मर्जी के माफिक इनका भरमा-चोपण न कर सकें, तो लड़की को स्वतन्त्र रहने का अधिकार है ! वह इकरारनामा मेरे पास है।" "ई उस्ताद हो ।दा सौ रूपए लाए हो?" "चे हाज़िर हैं।" जाओ अपना काम करो, लड़की को यहाँ भेज दो। मगर देतो, वह इस शादी में ना तो न करेगी?" "जरा भी नहीं "तन ठीक विधवा-आश्रम का आज वार्षिकोत्सव था । सभास्थान खून सजाया गया था । लाल-पीले कपड़ों पर बेद-मन्त्र लिखकर लटकर दिए गए थे। धर्म और सत्यकर्म का प्रवाह बह रहा था। नमस्ते' की गूंज आसमान को चीर रही थी। बहुत सी खियाँ और पुरुष एकत्रित थे। सभास्थल खचाखच भर रहा था। थोड़ी देर : बैण्ड बज चुकने के बाद सभा की कार्यवाही प्रारम्भ हुई। भीतरी ओर का एक छोटा सा दरवाजा खुला और उसमें से पांच छै आदमी निकले । येसा अन्तर सभासदस्य थे। इन्हीं में हमारे व-परिचित डाक्टर साहक तथा अन्य सत्पुरुष भी थे। 1