पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/३०

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चतुरसेन की कहानिया २ मैन देखा वह एक वृद्धा मुसलमान था। दुबला पतला, पुरानी शेरवानी पहने. सिर पर दुपल्ली हल्की टोपी, खिचड़ी दाढ़ी और मोटे-मोटे काले होंठ, उनके भीतर तम्बाकू और पान से वित्त मुन्नई रंग के चितकबरे बेतरतीब टूटे फूटे दॉत, पैनों में एक मैला पायजामा । दूर से ही उसने झुक कर बार-बार मला में भूकाई । मान्दर जी सिर्फ मुस्कुरा कर ही रह गए । पास आने पर उसने फिर भुक कर सलाम किया। मास्टरजी ने कहा-"कहो अमजद, आखिर तुम्हारा लड़का मैट्रिक में रह गया, सुनकर बहुत अफसोस हुआ "रह ही गया हुजर ! मगर अफसोस काहे का ? 'गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में, वह तिल क्या गिरे जो घुटनों के बल चले'मियाँ अमजद ने एक फीकी हँसी हसी और फिरक सांस खींचकर अपनी दो उंगलियों से माथा ठोक कर कहा---'यह सब किस्मत का खेल है हुजूर, मैं आपको इसका जिम्मेदार नहीं ठहरा सकता ! हुजूर ने तो वह मिहनत की-वह गुर सिखाए कि जिसका नाम । कलेजा निकाल कर रख दिया हुजूर ने, मानता हूँ। मगर किस्मत ! कुछ लड़का भी कुन्द बहन नहीं। और यह तो देखिए-जो लड़के उसके पास आकर पढ़ जाते थे, सवालात हल करते थे, वे पास हो गए। मगर यह फेल ! अमजद मियाँ एकदम ही हँस दिए। पर तुरत ही उन्होंने भौंहों में यल डाल कर कहा 'मगर हुजूर, मेरे दिल में चोर हैं, नास्वादा हूँ तो क्या, जूतियाँ आपही लोगों की सीधी करता हूँ, धूप में बाल नहीं सुखोए हैं । कुछ गलती या बेईमानी जरूर हुई है, मेरा दिल कहता है हुजूर ।"