पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/३८

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चतुरसेन को कहानियाँ अतिशाँ रंगीन मिनालियों की भाँति प्रातःकालीन समीर के मकारों का अानन्द ले रही थीं । एक मजदूर दम्पति ऊँचे स्वर से बिरहा गाले जा रहे थे। तारकोल को चमचमाती सड़कों पर ईद-बीच में तेज रफर से मोटरे निकल जाती थीं। एक चूहा सड़क के किनारे अपनी छोटी सी दुकान सजा रहा था। कैदी ने यह सब देखा। सात साल बाद उसके सामने विस्मृन संसार के रंगीन दृश्य आ-जा रहे थे। कैदी धीरे-धीरे कभी इस चलनी-फिरती दुनिया को देखता हुश्रा और कभी अपने मन भविष्य का ध्यान करता हुआ लागे बद महा था वह कहाँ जा रहा है, इस पर उसने विचार ही नहीं किया था। पर जब वह अकरमाद रेलवे स्टेशन के सामने जा खड़ा हुआ लो ठिठक कर कुछ सोचने लगा ! फिर हद कदमों से यह टिक्द घर की खिड़की के सामने जा खड़ा हुआ। कमीज़ की जंछ में उसने हाथ डाला, और जितने पैसे जेब में थे, सत्र निकाल कर खिड़की के भीतर लापरवाही से फेकते हुए "एक टिकट दिल्ली का।" टिकट बाने ने आँखें उठाकर देखा-~-टिकट के दाम से बहुत ज्यादा रुपए सामने पड़े थे । उसने पूछा-"किस क्लास का?" कैदी ने लापरवाही से कहा -"चाहे जिसका भी दे दो।" बाबू ने रुपए गिने और सेकेण्ड क्लास का एक टिकट दे दिया । एक उड़ती नजर उसने अपने टिकट पर डालो और कुछ बड़बड़ाता-सा प्लेटफार्म को और बढ़ गया। गाड़ी आने में देर थी, भूख से लग रही थी, स्टेशन पर उसने कहा-